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{3363 यो ज्ञातिमनुगृह्णाति दरिद्रं दीनमातुरम्। स पुत्रपशुभिवृद्धिं श्रेयश्चानन्त्यमश्नुते॥
(म.भा. 5/39/17-18) - जो अपने कुटुम्बी, दरिद्र, दीन तथा रोगी पर अनुग्रह करता है, वह पुत्र और पशुओं से वृद्धि को प्राप्त होता और अनन्त कल्याण का अनुभव करता है।
{337} पर- द्रव्येष्वभिध्यानं मनसा दुष्टचिन्तनम्। वितथाभिनिवेशश्च त्रिविधं कर्म मानसम्॥
' (वि. ध. पु. 3/253/5) दूसरे के धन को हड़पने का विचार करना, मन से दूसरे के बारे में अमंगल सोचना, तथा असत्य बात पर भी अपना दुराग्रह रखना- ये तीनों मानसिक पाप कर्म हैं (जो त्याज्य हैं)।
{338} न स्वर्गे ब्रह्मलोके वा तत् सुखं प्राप्यते नरैः। यदार्तजन्तुनिर्वाण-दानोत्थमिति मे मतिः॥
__(मा.पु. 15/56) (स्वर्गगामी राजा 'विपश्चित्' की उक्ति-) मेरी तो अपनी धारणा यह है कि जो सुख मानव को आर्त प्राणियों की पीड़ा के प्रशमन में मिलता है, वह न तो स्वर्गलोक में मिल सकता है और न ब्रह्मलोक में ही।
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{339} यस्तु प्रीतिपुरोगेन चक्षुषा तात पश्यति। दीपोपमानि भूतानि यावदर्थान्न पश्यति॥
(म.भा.12/297/35) जो समस्त प्राणियों को दीपक के समान स्नेह से संवर्धन करने योग्य मानता है और उन्हें स्नेह भरी दृष्टि से देखता है एवं जो समस्त विषयों की ओर कभी दृष्टिपात नहीं करता, वह परलोक में सम्मानित होता है।
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अहिंसा कोश/99]