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सर्वेषां यः सुहृन्नित्यं सर्वेषां च हिते रतः। कर्मणा मनसा वाचा स धर्मं वेद जाजले॥
(म.भा.12/262/9) जो सब जीवों का सुहृद् होकर और मन, वाणी तथा क्रिया द्वारा सदा सब के हित में लगा रहता है, वही वास्तव में धर्म के स्वरूप को जानता है।
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अद्रोहः सर्वभूतेषु कर्मणा मनसा गिरा। अनुग्रहश्च दानं च सतां धर्मः सनातनः॥
(म.भा.3/297/35) मन, वाणी और क्रिया द्वारा किसी भी प्राणी से द्रोह न करना, सब पर दयाभाव बनाये रखना और दान देना-यह साधु पुरुषों का सनातन धर्म है।
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सर्वलौकहितैषित्वं मंगलं प्रियवादिता। सामान्यं सर्ववर्णानां मुनिभिः परिकीर्तितम्॥
(ना. पु. 1/24/28-29) मुनियों ने समस्त वर्णो के लिए सामान्य धर्म इस प्रकार बताए हैं- सभी लोगों के + हित-साधन की भावना, सभी के लिए मंगल-भावना, प्रिय-भाषण आदि-आदि।
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दधीचिना पुरा गीतः श्लोकोऽयं श्रूयते भुवि। सर्वधर्ममयः सारः सर्वधर्मज्ञसंमतः॥ परोपकारः कर्तव्यः प्राणैरपि धनैरपि। परोपकारजं पुण्यं तुल्यं क्रतुशतैरपि॥
(प.पु. 6(उत्तर)/129/238-239) ___दधीचि ऋषि द्वारा पूर्व काल में कथित यह प्रशंसात्मक वचन पृथ्वी पर सुना जाता ॐ है, जिसमें सभी धर्मों का सार निहित है और जो सभी धर्मज्ञों द्वारा संमत है- 'अपने प्राणों के 4 से तथा धन से भी परोपकार करना चाहिए, और परोपकार से उत्पन्न पुण्य सैकड़ों यज्ञों के के समान होता है।
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अहिंसा कोश/103]