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{617} अपरे बन्धुवर्गे वा, मित्रे द्वेष्टरि वा सदा। आत्मवद्वर्तनं यत् स्यात् सा दया परिकीर्तिता॥
___ (भ.पु. 1/-/2/158) चाहे कोई दूसरा हो या अपना, शत्रु हो या मित्र- इन सबके प्रति किए गए आत्मवत् व्यवहार का ही नाम 'दया' है।
{618}
न हि प्राणात् प्रियतरं लोके किंचन विद्यते। तस्माद् दयां नरः कुर्याद् यथाऽऽत्मनि तथा परे॥
(म.भा. 13/116/8) ___ जगत् में अपने प्राणों से अधिक प्रिय दूसरी कोई वस्तु नहीं है। इसलिये मनुष्य जैसे अपने ऊपर दया चाहता है, उसी तरह दूसरों पर भी दया करे।
{619) न ह्यात्मनः प्रियतरं किंचिद् भूतेषु निश्चितम्। अनिष्टं सर्वभूतानां मरणं नाम भारत॥ तस्मात् सर्वेषु भूतेषु दया कार्या विपश्चिता।
__ (म.भा. 11/7/27-28) यह बात निश्चित रूप से कही जा सकती है कि प्राणियों को अपनी आत्मा से अधिक प्रिय कोई भी वस्तु नहीं है; इसीलिये मरना किसी भी प्राणी को अच्छा नहीं लगता; 4 अतः विद्वान् पुरुष को सभी प्राणियों पर दया करनी चाहिये।
{620
नात्मनोऽस्ति प्रियतरः पृथिवीमनुसृत्य ह। तस्मात् प्राणिषु सर्वेषु दयावानात्मवान् भवेत्॥
(म.भा. 13/116/22) इस भूमण्डल पर अपनी : 'त्मा (स्वयं के जीवन) से बढ़कर कोई प्रिय वस्तु नहीं म है। इसलिये सब प्राणियों पर दया करे और सब को अपनी आत्मा (अपने जैसा) ही समझे।
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अहिंसा कोश/175]