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अहिंसा और दया/आनृशंस्य धर्म
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[दया, करुणा आदि अहिंसा रूपी बीज से उत्पन्न वृक्ष की शाखा-प्रशाखाएं ही हैं। दया, करुणा व अनुकम्पा के भाव को विकसित किए बिना 'अहिंसक होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। इसी सन्दर्भ में कुछ विशिष्ट शास्त्रीय उद्धरण यहां प्रस्तुत हैं-]
अहिंसा =आत्मवत् व्यवहार)= दया
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{614} सर्वभूतदयावन्तो विश्वास्याः सर्वजन्तुषु॥ त्यक्तहिंसा-समाचारास्ते नराः स्वर्गगामिनः।
(म.भा. 13/144/9-10) __जो सब प्राणियों पर दया करने वाले तथा सब जीवों के विश्वासपात्र होते हैं और जिन्होंने हिंसामय आचरण को त्याग दिया है, इस प्रकार वे (अहिंसा के निषेधात्मक व विधेयात्मक-दोनों पक्षों का अनुष्ठान करने वाले) मनुष्य ही स्वर्ग में जाते हैं।
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{615} आत्मवत्सर्वभूतेषु यो हिताय प्रवर्तते। अहिंसैषा समाख्याता वेदसंविहिता च या॥
____ (कं. पु. 1/(2)/55/15) सभी प्राणियों में आत्मवत् दृष्टि रखते हुए उनका हितकारी कार्य करना- यही 'अहिंसा' है जो 'वेद' में प्रतिपादित है।
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{616} परस्मिन् बन्धुवर्गे वा मित्रे द्वेष्ये रिपौ तथा। आत्मवद् वर्त्तितव्यं हि दयैषा परिकीर्तिता।
(अ. स्मृ. 41) पराये लोग/शत्रुओं या बन्धुवर्ग के प्रति, मित्र या अपने से द्वेष रखने वाले के प्रति जो आत्मवत् व्यवहार है, वही 'दया' कही गई है।
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