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अन्नं विष्ठा जलं मूत्रं विप्राणां वृषवाहिनाम्। पितरो नैव गृह्णन्ति तेषां श्राद्धं च तर्पणम्॥ देवता नहि गृह्णन्ति तेषा पुष्पं फलं जलम्। ददाति यदि दम्भेन विपाताय प्रकल्पते॥ यो भुंक्ते कामतोऽन्नं च ब्राह्मणो वृषवाहिनाम्। नाधिकारो भवेत्तेषां पितृदेवार्चने नृप॥ लालाकुण्डे वसत्येव यावच्चन्द्रदिवाकरौ। विष्ठा भक्ष्यं मूत्रजलं तत्र तस्य भवेद् ध्रुवम्॥ त्रिसंध्यं ताडयेत्तं च शूलेन यमकिंकरः। उल्कां ददाति मुखतः सूच्या कृन्तति संततम्॥ षष्टिवर्षसहस्त्राणि विष्ठायां च कृमिर्भवेत्। ततः काकः पञ्चजन्मस्वथैवं बक एव च॥ पञ्चजन्मसु गृध्रश्च शृगालः सप्तजन्मसु। ततो दरिद्रः शूद्रश्च महाव्याधिस्ततः शुचिः॥
___ (ब्र.वै.पु. 2/51/58-67) बैलों को (उस कार्य में) नित्य मारने-पीटने से ब्रह्महत्या के समान पाप लगता है 4 और उनके ऊपर भार (बोझ) लादने से उसका दुगुना पाप होता है। इस प्रकार (सूर्य) *
के(प्रचण्ड) धूप में जो भूखे-प्यासे बैलों को अपने (जोतने-लादने के) काम में लगाये रहता है, उसे सौ ब्रह्म-हत्याओं के समान पाप होता है, इसमें संशय नहीं। उन वृषवाही (बैलों द्वारा जोतने-लादने के काम करने वाले) ब्राह्मणों का अन्न विष्ठा के समान और जल मूत्र के समान होता है तथा उनके श्राद्ध-तर्पण को पितर लोग ग्रहण नहीं करते हैं। देवता भी उनका फूल, फल एवं जल ग्रहण नहीं करते हैं। जो ब्राह्मण स्वेच्छा से वृषवाहकों का अन्न खाता है, उसे पितृकार्य एवं देवकार्य (पूजादि) में अधिकार भी नहीं रहता है। (इस कारण)
चंद्रमा और सूर्य के समय तक उसे लाला (लार) कुण्ड नरक में रहते हुए विष्ठा-भोजन और * मूत्र-पान निश्चित ही करना पड़ता है। यमराज के सेवक शूल द्वारा तीनों संध्याओं में . (अर्थात् दिन में तीन बार) उसे ताड़ना देते हैं, मुख में जलती हुई लकड़ी डाल देते और सूई भ से शरीर में निरन्तर छेदते रहते हैं। पश्चात् वह साठ सहस्र वर्ष तक विष्ठा का कीड़ा, पाँच
जन्मों तक कौवा और बगुला, पाँच जन्मों तक गीध और सात जन्मों तक सियार होता है। ॐ अनन्तर, दरिद्र और महारोगी शूद्र होकर उसके पश्चात् कहीं शुद्ध हो पाता है।
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अहिंसा कोश/181]