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{439} मद्यपो रक्तपित्ती स्यात् ।
(शा. स्मृ.,
मद्यपान करने वाले मनुष्य को रक्त-पित्त की व्याधि होती है ।
{440}
अभक्षणे सर्वसुखं मांसस्य मनुजाधिप ॥
मांस-भक्षण न करने में ही सब प्रकार का सुख है।
{441}
यो यस्य मांसमश्नाति स तन्मांसाद उच्यते । मत्स्यादः सर्वमांसादः तस्मान्मत्स्यान् विवर्जयेत् ॥
{442}
मांस भक्षयितामुत्र यस्य मांसमिहाम्यहम् । एतन्मांसस्य मांसत्वं प्रवदन्ति मनीषिणः ॥
(म.भा. 13/115/52)
( म. स्मृ. 5 / 15 )
जो जिसके मांस को भक्षण करता है, वह उसीका 'मांसाद' कहा जाता है किन्तु मछली के मांस को भक्षण करने वाला तो 'सर्वमांसाद' (सबके मांस का भक्षण करने वाला) होता है, इस कारण से मछली (के मांस) को छोड़ दे (अर्थात् कभी न खाए ) ।
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मद्य व मांसः ब्रह्मचारी व संन्यासी के लिए विशेषतः वर्ज्य {443}
स्त्रग्गन्धमधुमांसानि ब्रह्मचारी विवर्जयेत् ।
[वैदिक / ब्राह्मण संस्कृति खण्ड / 124
(म.स्मृ. 5/ 55; वि. ध. पु. 3/252/21-22) जिसके मांस को यहां पर खाता हूं, वह मुझे परलोक में खायेगा, विद्वान् 'मांस' शब्द का यही मांसत्व (मांसपना अर्थात् मांस शब्द की निरुक्ति) बतलाते हैं। (अर्थात् 'मांस' की निरुक्ति यह बताती है कि उसे जो खाता है, उस खाने वाले को ही वह (मांस) परलोक में या दूसरे जन्म में खाता है- अपना भोजन बनाता है ।)
(सं. स्मृ., 5)
ब्रह्मचारी को माला, सुगन्धित पदार्थ, मधु और मांस के सेवन का त्याग कर देना चाहिए।
原名