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{538} कुवाक्यान्तञ्च सौहृदम्।
(पं.त. 5/72) कटु वाक्य के प्रयोग से मैत्री नष्ट हो जाती है।
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नारुन्तुदः स्यादातॊऽपि न परद्रोहकर्मधीः। ययाऽस्योद्विजते वाचा नालोक्यां तामुदीरयेत्॥
(म.स्मृ. 2/161). स्वयं दुःखित होते हुए भी दूसरे किसी को दुःख न दे, दूसरे का अपकार करने का विचार न करे और जिस वचन से कोई दुःखित हो, ऐसा स्वर्ग-प्राप्ति का बाधक वचन न कहे।
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{540} असन्नस्त्वासत इन्द्र वक्ता।
(अ.8/4/8) हे इन्द्र ! असत्य भाषण करने वाला असत्य (लुप्त) ही हो जाता है।
{541} ये वदन्ति सदाऽसत्यं परमर्मावकर्तनम्। जिह्वा चोच्छ्रियते तेषां सदस्यैर्यमकिंकरैः॥
(ब्रह्म.पु. 106/96-97) जो लोग दूसरे को मर्मान्तक पीड़ा देने वाली असत्य भाषा बोलते हैं, यमलोक में यम के दूत उनकी जिह्वा का उच्छेद करते हैं।
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{542} शिश्नोदरे ये निरताः सदैव, स्तेना नरा वाक्परुषाश्च नित्यम्। अपेतदोषानपि तान् विदित्वा, दूराद् देवाः सम्परिवर्जयन्ति॥
(म.भा.12/299/36) जो सदा पेट पालने और उपस्थ-इन्द्रियों के भोग भोगने में ही लगे रहते हैं तथा जो ॐ चोरी करने एवं सदा कठोर वचन बोलने वाले हैं, वे यदि प्रायश्चित्त आदि के द्वारा उक्त कर्मों मैं के दोष से छूट जाएं, तो भी देवता लोग उन्हें पहचान कर दूर से ही त्याग देते हैं।
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. अहिंसा कोश/153]