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{535) आजन्मसेवितं दानैर्मानैश्च परितोषितम्। तीक्ष्णवाक्यान्मित्रमपि तत्कालं याति शत्रुताम्। वक्रोक्तिशल्यमुद्धर्तुं न शक्यं मानसं यतः॥
(शु.नी. 3/233-34) जिसकी जन्म से ही सेवा की गई हो और दान तथा मान से पोषण किया गया हो, ऐसा मित्र भी तीक्ष्ण वाक्यों के कहने से तत्काल ही शत्रु बन जाता है, क्योंकि चित्त में चुभे हुये कटु-वचन रूपी कांटों को निकाल कर दूर करने में वह समर्थ नहीं होता है। अतः मित्रों को भी तीक्ष्ण बातें नहीं सुनानी चाहिये।
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{536} संवादे परुषाण्याहुर्युधिष्ठिर नराधमाः। प्रत्याहुर्मध्यमास्त्वेतेऽनुक्ताः परुषमुत्तरम्॥ न चोक्ता नैव चानुक्तास्त्वहिताः परुषा गिरः। प्रतिजल्पन्ति वै धीराः सदा तूत्तमपूरुषाः॥
(म.भा. 2/73/8-9) नीच मनुष्य साधारण बातचीत में भी कटुवचन बोलने लगते हैं। जो स्वयं पहले कटुवचन न कहकर दूसरे के कटु वचन के प्रत्युत्तर में कठोर बातें कहते हैं, वे मध्यम श्रेणी के पुरुष हैं। परंतु जो धीर एवं श्रेष्ठ पुरुष हैं, वे किसी के कटुवचन बोलने या न बोलने पर भी अपने मुख से कभी कठोर एवं अहितकर बात नहीं निकालते।
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{537} यथा वृक्ष आविर्मूल: शुष्यति स उद्वर्तते, एवमेवानृतं वदन्नाविर्मूलमात्मानं करोति, स शुष्यति, स उद्वर्तते, तस्मादनृतं न वदेत्।
(ऐ. आ. 2/3/6) जिस प्रकार वृक्ष मूल (जड़) के उखड़ जाने से सूख जाता है और अन्ततः नष्ट हो 卐 जाता है, उसी प्रकार असत्य बोलने वाला व्यक्ति भी अपने आप को उखाड़ देता है, जन# समाज में प्रतिष्ठाहीन हो जाता है, निन्दित होने से सूख जाता है-श्री हीन हो जाता है, और म * अन्ततः नरकादि दुर्गति पाकर नष्ट हो जाता है।
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वैदिक/ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/152