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{596} आक्रुश्यमानो नाक्रोशेन्मन्युरेव तितिक्षतः। आक्रोष्टारं निर्दहति सुकृतं चास्य विन्दति॥
(म.भा. 5/36/5, 12/299/16; विदुरनीति 4/5;
द्रष्टव्यः वि. ध. पु. 3/269/2) दूसरों से गाली सुनकर भी स्वयं उन्हें गाली न दे। (गाली को) सहन करने वाले द्वारा रोका हुआ क्रोध गाली देने वाले को ही जला डालता है और उसके पुण्य को भी ले लेता है।
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{597} प्रत्याहु!च्यमाना ये न हिंसन्ति च हिंसिताः। प्रयच्छन्ति न याचन्ते दुर्गाण्यतितरन्ति ते॥
(म.भा. 12/110/4) जो दूसरों के कटु वचन सुनाने या निन्दा करने पर भी स्वयं उन्हें उत्तर नहीं देते; मार खाकर भी किसी को मारते नहीं; तथा स्वयं दान देते हैं, परंतु दूसरों से मांगते नहीं; + वे दुर्गम संकट से पार हो जाते हैं।
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{598} उक्ताश्च न वदिष्यन्ति वक्तारमहिते हितम्। प्रतिहन्तुं न चेच्छन्ति हन्तारं वै मनीषिणः॥
(म.भा.12/229/9) श्रेष्ठ बुद्धि से सम्पन्न मनीषी पुरुषों से कोई कटु वचन कह दे तो वे भी उस कटुवादी पुरुष को बदले में कुछ नहीं कहते। वे अपना अहित करने वाले का भी हित ही चाहते हैं है तथा जो उन्हें मारता है, उसे भी वे बदले में मारना नहीं चाहते हैं।
599 अतिवादांस्तितिक्षेत नावमन्येत कञ्चन। न चेमं देहमाश्रित्य वैरं कुर्वीत केनचित्॥
(म.स्मृ.-6/47; भा. पु. 12/6/34 ) संन्यासी व्यक्ति मर्यादा से बाहर (भी) किसी के कही हुई बात को सहन करे, किसी का अपमान न करे और इस (नश्वर)शरीर को धारण कर किसी के साथ वैर न करे। 第历历历明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明、
अहिंसा कोश/167]