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{606} पापेन कर्मणा विप्रो धनं प्राप्य निरंकुशः। रागमोहान्वितः सोऽन्ते कलुषां गतिमश्रुते॥ अपि संचय-बुद्धिर्हि लोभमोहवशंगतः॥ उद्वेजयति भूतानि पापेनाशुद्धबुद्धिना॥
__ (म.भा. 14/91/29-30) जो व्यक्ति पाप-कर्म से (अन्यायपूर्ण रीति से) धन कमा कर उच्छृखल होता हुआ राग व मोह के वशीभूत हो जाता है, वह अंत में दुर्गति को ही प्राप्त होता है। वह लोभ व मोह के वशीभूत होता हुआ संग्रह/परिग्रह की प्रवृत्ति को अपनाता है, और बुद्धि को ' कलुषित कर देने वाले पाप-कर्मों के द्वारा (अन्य) प्राणियों को उद्विग्न/ पीड़ित करता है।
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{607} कृच्छ्राच्च द्रव्यसंहारं कुर्वन्ति धनकारणात्। धनेन तृषितोऽबुद्धया भ्रूणहत्यां न बुद्धयते॥
(म.भा. 12/20/8) लोग धन के लिये बड़े कष्ट से नाना प्रकार के द्रव्यों का संग्रह करते हैं। परंतु धन ' के लिये प्यासा हुआ मनुष्य अज्ञान-वश भ्रूणहत्या जैसे पाप का भागी हो जाता है, इस बात को वह नहीं समझता।
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हिंसात्मक (वैर-विद्वेष) आदि भावों का वर्धकः परिग्रह
{608)
स्तेयं हिंसाऽनृतं दम्भः कामः क्रोधः स्मयो मदः। भेदो वैरमविश्वासः संस्पर्धा व्यसनानि च॥ एते पञ्चदशानर्था ह्यर्थमूला मता नृणाम्। तस्मादनर्थमाख्यं श्रेयोऽर्थो दूरतस्त्यजेत्॥
(भा.पु. 11/23/17-19) हिंसा, चोरी, झुठाई, पाखण्ड, काम, क्रोध, गर्व, अहंकार, भेदबुद्धि, वैर, अविश्वास, स्पर्धा, व्यसन-ये पन्द्रह अनर्थ मनुष्यों को धन से ही होते हैं। अतएव कल्याण का इच्छुक ॐ पुरुष इस अर्थरूपी अनर्थ को दूर से ही त्याग दे।
野野野乃乃乃所所西野野野野野野野野野野野野巧弥西西西西西西西野野野野野野 वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/170