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{609} संपन्मत्तः सुमूढश्च सुरामत्तः सचेतनः। बान्धवैर्वेष्टितः सोऽपि बन्धुद्वेषकरो मुने॥ संपन्मदप्रमत्तश्च विषयान्धश्च विह्वलः। महाकामी साहसिकः सत्त्वमार्गं न पश्यति॥
___(ब्र.वै.पु. 2/36/50-51) सम्पत्ति से मतवाला, अत्यन्त मूढ़ तथा मदमत्त व्यक्ति चेतना से युक्त तथा ई बान्धवों से घिरा हुआ होने पर भी बन्धुओं से द्वेष करता है। सम्पत्ति-रूपी मद (नशे) से महामत्त प्राणी (सदैव) विषयों (भोगों) से अन्धा, व्याकुल, महाकामी तथा साहसिक होने से सात्त्विक मार्ग को नहीं देख पाता है।
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{610} न संकरेण द्रविणं प्रचिन्वीयाद् विचक्षणः। धर्मार्थं न्यायमुत्सृज्य न तत् कल्याणमुच्यते॥
(म.भा. 12/294/25) बुद्धिमान् पुरुष को चाहिए कि न्याय को छोड़कर (अन्याय-मार्ग से) पापमिश्रित तरीके से धन का संग्रह/परिग्रह न करे, क्योंकि (अहिंसा आदि) धर्माचरण के लिए वह कल्याणकारी नहीं है।
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{611} ईहेत धनहेतोर्यस्तस्यानीहा गरीयसी। भूयान् दोषो हि वर्धेत यस्तं धनमुपाश्रयेत्॥
(म.भा. 12/20/7) जो धन के लिये विशेष चेष्टा करता है, वह वैसी चेष्टा न करे-यही सब से अच्छा है; क्योंकि जो उस धन की उपासना करने लगता है, उसके महान् दोषों (हिंसादि अवगुणों) की वृद्धि हो जाती है।
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अहिंसा कोश/171]