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{603} सदाऽसतामतिवादांस्तितिक्षेत् सतां वृत्तं चाददीतार्यवृत्तः॥
: (म.भा. 1/87/10) दुष्ट लोगों की कही हुई अनुचित बातें सदा सह लेनी चाहिये तथा साधु पुरुषों के व्यवहार को ही अपनाते हुए श्रेष्ठ सदाचार से सम्पन्न होना चाहिये।
{604}
आक्रोशन्तं स्तुवन्तं च तुल्यं पश्यन्ति ये नराः। शांतात्मानो जितात्मानस्ते नराः स्वर्गगामिनः॥
(प.पु. 2/96/43) जो अपने पर आक्रोश करने वाले और स्तुति करने वाले दोनों को समान भाव से देखते हैं, और जो प्रशान्त-चित्त एवं जितेन्द्रिय हैं, वे स्वर्ग में जाते हैं।
अहिंसा और संतोष/अपरिग्रह धर्म
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[संतोष और अपरिग्रह- ये दोनों धर्म एक ही प्रवृत्ति के दो रूप हैं। इन दोनों का पालन तभी सम्भव हो सकता है जब असंतोष, तृष्णा, परिग्रह-भावना जैसी हिंसक प्रवृत्तियों पर नियंत्रण हो और उनसे विरति हो। असंतोष व परिग्रह की हिंसकता को इंगित करने वाले कुछ शास्त्रीय वचन यहां प्रस्तुत हैं-]
हिंसक वृत्तिः असन्तोष व परिग्रह
{605} नाच्छित्वा परमर्माणि, नाकृत्वा कर्म दारुणम्। नाहत्वा मत्स्यघातीव प्राप्नोति महतीं श्रियम्॥
(म.भा. 1/139/77; 12/15/14) (राजा या कोई व्यक्ति) मछलीमार की तरह जब तक किसी प्राणी के मर्म का उच्छेद नहीं करता, तथा अत्यन्त क्रूर कर्म कर किसी का प्राण-वध नहीं करता, तब तक + अत्यधिक सम्पत्ति नहीं प्राप्त कर सकता।
[जैसे मछलीमार मछली का पेट चीर कर तथा क्रूरता से उसे मार कर ही उसके पेट से हीरे -मोती आदि प्राप्त कर पाता है, वैसे ही कोई भी व्यक्ति धन या संपत्ति का अर्जन करता व हिंसा का सहारा लेकर ही कर सकता है।] %%%%%%%%%%%%%%%%%%% %%%%% %%%%%
अहिंसा कोश/169]