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{548} परस्परस्य मर्माणि न कदापि वदेत् द्विजः।
(ना. पु. 1/26/38) द्विज को चाहिए कि वह एक दूसरे के रहस्यों को कभी न खोले।
{549}
सक्तुमिव तितउना पुनन्तो, यत्र धीरा मनसा वाचमक्रत। अत्रा सखायः सख्यानि जानते, भद्रैषां लक्ष्मीनिहिताधि वाचि॥
(ऋ.10/71/2) जैसे सत्तू को सूप (छाज) से परिष्कृत (शुद्ध) करते हैं, वैसे ही मेधावी जन अपने बुद्धि-बल से परिष्कृत की गई भाषा को प्रस्तुत करते हैं। विद्वान लोग वाणी से होने वाले अभ्युदय को प्राप्त करते हैं, इनकी वाणी में मंगलमयी लक्ष्मी निवास करती है।
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{550} सत्यां हितां वदेद्वाचं परलोकहितैषिणीम्॥
(ल.हा.स्मृ. 1/30) परलोक में, या अन्य लोगों के लिए उपकार करने वाली, सत्य व हितकारी वाणी बोलनी चाहिये।
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{551}
प्रयुञ्जीत सदा वाचं मधुरां हितभाषिणीम्।
(औ.स्मृ.,123; प. पु. 3/53/16
में आंशिक परिवर्तन के साथ) सर्वदा हितकारी मधुर वाणी का प्रयोग करना चाहिए।
{552}
ऋतं च सूनृता वाणी कविभिः परिकीर्तिता।
(भा.पु. 11/19/38)
सत्य व मधुर वाणी का ही नाम 'ऋत' है।
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अहिंसा कोश/155]