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{581 प्रियवचनवादी प्रियो भवति।
(म.भा. 3/313/113) मधुर वचन बोलने वाला (सभी का) प्रिय बन जाता है।
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एकं प्रसूयते माता द्वितीयं वाक् प्रसूयते। वाग्जातिमधिकं प्रोचुः सोद-दपि बन्धुवत्॥
(पं.त. 4/6) एक बन्धु को माता उत्पन्न करती है और दूसरी को वाणी (सम्भाषण) अर्थात् ज वाग्दान से (भाई) बनाया जाता है। पण्डित लोग इन दोनों में सम्भाषण से उत्पन्न बन्धु को है
सोदर भाई से भी श्रेष्ठ बताते हैं।
{583}
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कः परः प्रियवादिनाम्॥
(पं.त. 2/125) प्रिय बातें बोलने वालों के लिए न कोई पराया होता है और न ही कोई शत्रु होता है।
{584} सत्यं च धर्मं च पराक्रमं च भूतानुकम्पां प्रियवादितां च। द्विजातिदेवातिथिपूजनं च पन्थानमाहुस्त्रिदिवस्य सन्तः॥
(म.भा. 2/109/31) समस्त प्राणियों पर दया तथा सबसे प्रिय वचन बोलना-इन्हें (सत्य, धर्म, देवता व ब्राह्मणों (विद्वानों) की पूजा- इन कार्यों की तरह) साधु पुरुषों ने स्वर्गलोक का मार्ग बताया है।
{585} प्रियमेवाभिधातव्यं नित्यं सत्सु द्विषत्सु वा। शिखीव केका मधुरां वाचं ब्रूते जनप्रियः॥
(शु.नी. 1/168) सज्जन हो या दुर्जन, सभी के साथ सदैव मधुर वचन बोलना चाहिये, क्योंकि जो मनुष्य मयूर की तरह मधुर वचन बोलता है, वह जनप्रिय होता है।
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वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/164