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{528}
अरुन्तुदं परुषं तीक्ष्णवाचं वाक्कण्टकैर्वितुदन्तं मनुष्यान् ।
विद्यादलक्ष्मीकतमं जनानां मुखे निबद्धां निर्ऋतिं वहन्तम् ॥
(म.भा. 1/87/9; 5/36/8, म. पु. 36/9 कुछ परिवर्तित रूप में, विदुरनीति 4 / 8 )
जो स्वभाव का कठोर हो, दूसरों के मर्म में चोट पहुंचाता हो, तीखी बातें बोलता हो
और कठोर वचनरूपी कांटों से दूसरे मनुष्य को पीड़ा देता हो, उसे अत्यन्त लक्ष्मीहीन (दरिद्र या अभागा ) समझें। (उसको देखना भी बुरा है ; क्योंकि) वह कड़वी बोली के रूप में (मानों) अपने मुंह में बंधी हुई एक पिशाचिनी को ढो रहा है।
{529}
नारुन्तुदः स्यान्न नृशंसवादी न हीनतः परमभ्याददीत । ययाऽस्य वाचा पर उद्विजेत न तां वदेदुषतीं पापलोक्याम् ॥
(म.भा. 1/87/8; 2/66/ 6; 12 / 299/8; वि. ध. पु. 3/233/279 ; म. पु. 36/8 में कुछ परिवर्तित रूप में) क्रोधवश किसी के मर्म-स्थान में चोट न पहुंचाये ( ऐसा बर्ताव न करे, जिससे किसी को मार्मिक पीड़ा हो) । किसी के प्रति कठोर बात भी मुंह से निकाले । जो मन को जलाने वाली हो, जिससे दूसरे को उद्वेग होता हो, ऐसी बात मुंह से न बोले; क्योंकि पापी लोग ही ऐसी बातें बोला करते हैं। शत्रु के विरुद्ध भी अनुचित उपाय का सहारा न ले।
{530}
मर्माभिघातमाक्रोशं पैशुन्यञ्च विवर्जयेत् । दम्भाभिमानतीक्ष्णानि न कुर्वीत विचक्षणः । मूर्खोन्मत्तव्यसनिनो विरूपान्मायिनस्तथा ॥ न्यूनाङ्गांश्चाधिकाङ्गांश्च नोपहासैर्विदूषयेत् ।
(मा.पु. 34/ 45-47)
किसी के प्रति मर्मान्तक वचन, आक्रोश तथा चुगलखोरी से अपने आप को सदा बचाते रहे । मनुष्य की बुद्धिमत्ता इसी में है कि वह दम्भ, अभिमान तथा कटुवचन का परित्याग करे। साथ ही किसी मूर्ख, उन्मत्त, दु:खी, कुरूप, मायावी, न्यूनाङ्ग तथा अधिकाङ्ग व्यक्ति की हंसी न उड़ावे ।
[वैदिक / ब्राह्मण संस्कृति खण्ड / 150
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