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{479} यस्तु वर्षशतं पूर्णं तपस्तप्येत् सुदारुणम्। यश्चैव वर्जयेन्मांसं सममेतन्मतं मम॥
(म.भा. 13/115/53) (भीष्म का कथन-) जो मनुष्य सौ वर्षों तक कठोर तपस्या करता है तथा जो अ केवल मांस का परित्याग कर देता है-ये दोनों एक समान हैं- ऐसा मेरा मानना है।
{480} फलमूलाशनैर्मेध्यैर्मुन्यन्नानां च भोजनैः। न तत्फलमवाप्नोति यन्मांसपरिवर्जनात्॥
(म.स्मृ. 5/54) पवित्र फलों, कन्द-मूलों और मुन्यन्न ( तिनी आदि) के खाने से (मनुष्य) वह फल नहीं पाता है, जो मांस के त्याग से पाता है।
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{481} चतुरो वार्षिकान् मासान् यो मांसं परिवर्जयेत्। चत्वारि भद्राण्यवाप्नोति कीर्तिमायुर्यशोबलम्।।
(म.भा. 13/115/55) जो मनुष्य वर्षा के चार महीनों में मांस का परित्याग कर देता है, वह चार कल्याणमयी ' वस्तुओं -कीर्ति, आयु, यश और बल को प्राप्त कर लेता है।
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{482}
अथवा मासमेकं वै सर्वमांसान्यभक्षयन्। अतीत्य सर्वदुःखानि सुखं जीवेन्निरामयः॥
(म.भा. 13/115/56) एक महीने तक सब प्रकार के मांसों का त्याग करने वाला पुरुष भी सम्पूर्ण दुःखों से पार हो सुखी एवं नीरोग जीवन व्यतीत करता है।
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अहिंसा कोश/135]]