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{485} धृति लज्जांच बुद्धिं च पानं पीतं प्रणाशयेत्। तस्मान्नराः सम्भवन्ति निर्लज्जा निरपत्रपाः॥ पानपस्तु सुरां पीत्वा तदा बुद्धिप्रणाशनात्। कार्याकार्यस्य चाज्ञानाद् यथेष्टकरणात् स्वयम्॥ विदुषामविधेयत्वात् पापमेवाभिपद्यते॥
(म.भा.13/145/पृ. 5987) पी हुई मदिरा मनुष्य के धैर्य, लज्जा और बुद्धि को नष्ट कर देती है। इससे मनुष्य निर्लज और बेहया हो जाते हैं। शराब पीने वाला मनुष्य उसे पीकर बुद्धि का नाश हो जाने 卐 से, कर्त्तव्य और अकर्तव्य का ज्ञान न रह जाने से, स्वच्छन्द कार्य करने से तथा विद्वानों की * आज्ञा के अधीन न रहने से पाप को ही प्राप्त होता है।
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गुरूनतिवदेन्मत्तः परदारान् प्रधर्षयेत्। संविदं कुरुते शौण्डैन शृणोति हितं क्वचित्। एवं बहुविधा दोषाः पानपे सन्ति शोभने। केवलं नरकं यान्ति नास्ति तत्र विचारणा॥ तस्मात् तद् वर्जितं सद्भिः पानमात्महितैषिभिः। यदि पानं न वर्जेरन् सन्तश्चारित्रकारणात्। भवेदेतज्जगत् सर्वममर्यादं च निष्क्रियम्॥ तस्माद् बुद्धेर्हि रक्षार्थं सद्भिः पानं विवर्जितम्।
(म.भा.13/145/पृ. 5987) वह मतवाला होकर गुरुजनों से बहकी-बहकी बातें करता है, परायी स्त्रियों से बलात्कार करता है, धूर्तों और जुआरियों के साथ बैठ कर सलाह करता है और कभी किसी म की कही हुई हितकर बात भी नहीं सुनता है। शोभने! इस प्रकार मदिरा पीने वाले में बहुत
से दोष हैं। वे केवल नरक में जाते हैं, इस विषय में कोई विचार (संदेह) करने की बात नहीं हैं। इसलिये अपना हित चाहने वाले सत्पुरुषों ने मदिरा-पान का सर्वथा त्याग किया है। यदि + सदाचार की रक्षा के लिये सत्पुरुष मदिरा पीना न छोड़ें तो यह सारा जगत् मर्यादारहित और 4 ॐ अकर्मण्य हो जाय। अतः श्रेष्ठ पुरुषों ने बुद्धि की रक्षा के लिये ( उसे हिंसक भावों से ' * बचाने के लिए) मद्यपान को त्यागा है।
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अहिंसा कोश/137]