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{503} परत्र स्वबोध-संक्रान्तये वाग् उक्ता, सा यदि न वञ्चिता भ्रान्ता वा प्रतिपत्तिवन्ध्या वा भवेद् इति। एषा सर्वभूतोपकारार्थं प्रवृत्ता,न भूतोपघाताय। है यदि चैवमपि अभिधीयमाना भूतोपघातपरैव स्यात्, न सत्यं भवेत्, पापमेव 9 भवेत्।... तस्मात् परीक्ष्य सर्वभूतहितं सत्यं ब्रूयात्।
(यो.सू. 2/30 पर व्यास-भाष्य) अपने अनुभव/ज्ञान को दूसरे के पास संक्रान्त करने के उद्देश्य से वाणी का प्रयोग किया जाता है, वह सत्य तभी कहलाएगी यदि वह वञ्चना व भ्रान्ति से युक्त एवं प्रतिपादनई सामर्थ्य-हीन न हो। सत्य वाणी समस्त प्राणियों के उपकार हेतु ही प्रवृत्त होती है, न कि ॐ प्राणि-घात हेतु । यदि वह वाणी प्रयुक्त होकर प्राणि-विघातक ही हो, तो वह 'सत्य' नहीं * होगी, 'पाप' (असत्य) ही होगी।----इसलिए सोच-समझकर सर्वप्राणि-हितकारिणी ॐ सत्य-भाषा ही बोलनी चाहिए।
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{504} येऽन्यायेन जिहीर्षन्तो धनमिच्छन्ति कस्यचित्। तेभ्यस्तु न तदाख्येयं स धर्म इति निश्चयः।।
__(म.भा. 12/109/14) जो अन्याय से अपहरण करने की इच्छा रखकर किसी धनी के धन का पता लगाना चाहते हों, उन लुटेरों से उसका पता न बतावे और यही धर्म है, ऐसा निश्चय रक्खे।
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{505} पृष्टं तु साक्ष्ये प्रवदन्तमन्यथा, वदन्ति मिथ्या पतितं नरेन्द्र। एकार्थतायां तु समाहितायां, मिथ्या वदन्तं त्वनृतं हिनस्ति॥
___ (म.भा.1/82/17) किसी निर्दोष प्राणी का प्राण बचाने के लिये गवाही देते समय किसी के पूछने पर अन्यथा (असत्य) भाषण करने वाले को यदि कोई पतित कहता है तो उसका कथन + मिथ्या है। परंतु जहां अपने और दूसरे, दोनों के ही प्राण बचाने का प्रसंग उपस्थित हो, अ वहाँ केवल अपने प्राण बचाने के लिये मिथ्या बोलने वाले का असत्यभाषण उसका नाश म कर देता है।
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अहिंसा कोश/143]