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{476} भक्षयित्वाऽपि यो मांसं पश्चादपि निवर्तते। तस्यापि सुमहान् धर्मो यः पापाद् विनिवर्तते॥
(म.भा. 13/115/44; वि. ध. पु. 3/268/15-16) जो पहले मांस खाता भी हो, किन्तु कभी उससे निवृत्त हो जाता है, उसको भी अत्यन्त महान् धर्म की प्राप्ति होती है; क्योंकि वह पाप से निवृत्त हो गया है।
{477} दुष्करं च रसज्ञाने मांसस्य परिवर्जनम्। चर्तुं व्रतमिदं श्रेष्ठं सर्वप्राण्यभयप्रदम्।।
(म.भा. 13/115/17) मांस के रस का आस्वादन एवं अनुभव कर लेने पर उसे त्यागना और समस्त प्राणियों को अभय देने वाले इस सर्वश्रेष्ठ अहिंसाव्रत का आचरण करना अत्यन्त कठिन है।
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{478} मांसं तु कौमुदं पक्षं वर्जितं पार्थ राजभिः। सर्वभूतात्मभूतस्थैर्विदितार्थपरावरैः । नाभागेनाम्बरीषेण गयेन च महात्मना। आयुनाथानरण्येन दिलीप-रघु-पूरुभिः॥ कार्तवीर्यानिरुद्धाभ्यां नहुषेण ययातिना। नृगेण विष्वगश्वेन तथैव शशबिन्दुना॥ युवनाश्वेन च तथा शिबिनौशीनरेण च। मुचुकुन्देन मान्धात्रा हरिश्चन्द्रेण वा विभो॥
(म.भा. 13/115/58-61) जिन राजाओं ने आश्विन मास के दोनों पक्ष अथवा एक पक्ष में मांस-भक्षण का ॐ त्याग किया था, वे सम्पूर्ण भूतों के आत्मारूप हो गये थे और उन्हें परावर (परम) तत्त्व का है + ज्ञान हो गया था। उनके नाम इस प्रकार हैं- नाभाग, अम्बरीष, महात्मा गय, आयु, म अनरण्य, दिलीप, रघु, पूरु, कार्तवीर्य, अनिरुद्ध, नहुष, ययाति, नृग, विश्वगश्व, शशबिन्दु, ॐ युवनाश्व, उशीनर पुत्र शिबि, मुचुकुन्द, मान्धाता और हरिश्चन्द्र।
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वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/134