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{451) मधु मांसं च ये नित्यं वर्जयन्तीह धार्मिकाः। जन्मप्रभृति मद्यं च सर्वे ते मुनयः स्मृताः।।
(म.भा. 13/115/70) जो धर्मात्मा पुरुष जन्म से ही इस जगत् में शहद, मद्य और मांस का सदा के लिये परित्याग कर देते हैं, वे सब-के-सब मुनि (जैसे) माने गये हैं।
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अखण्डमपि वा मांसं सततं मनुजेश्वर। उपोष्य सम्यक् शुद्धात्मा योगी बलमवाप्नुयात्॥
(म.भा.12/300/46) जो लगातार जीवनभर के लिये मांस नहीं खाता है और विधिपूर्वक उत्तम व्रत का पालन करके अपने अन्तःकरण को शुद्ध बना लेता है, वह योगी योगशक्ति प्राप्त कर लेता है।
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{453} इष्टं दत्तमधीतं च क्रतवश्च सदक्षिणाः। अमांसभक्षणस्यैव कलां नार्हन्ति षोडशीम्॥ आत्मार्थे यः परप्राणान् हिंस्यात् स्वादुफलेप्सया। व्याघ्रगृध्रशृगालैश्च राक्षसैश्च समस्तु सः॥ स्वमांसं परमांसेन यो वर्धयितुमिच्छति। उद्विग्नवासं लभते यत्र यत्रोपजायते॥ संछेदनं स्वमांसस्य यथा संजनयेद् रुजम्। तथैव परमांसेऽपि वेदितव्यं विजानता॥
(म.भा.13/145/पृ. 5990) __यज्ञ, दान, वेदाध्ययन तथा दक्षिणासहित अनेकानेक यज्ञ-ये सब मिलकर मांस-भक्षण म के परित्याग की सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं होते। जो स्वाद की इच्छा से अपने लिए
दूसरे के प्राणों की हिंसा करता है, वह बाघ, गीध, सियार और राक्षसों के समान है। जो पराये म मांस से अपने मांस को बढ़ाना चाहता है, वह जहाँ-कहीं भी जन्म लेता है, वहीं उद्वेग में पड़ा है क रहता है। जैसे अपने मांस को काटना अपने लिये पीडाजनक होता है, उसी तरह दूसरे का मांस * काटने पर उसे भी पीड़ा होती है। यह प्रत्येक विज्ञ पुरुष को समझना चाहिये। 男男男男男男男男男男男男男男男男明明明明明明明明明明明明明明明明明、
अहिंसा कोश/127]
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