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{424}
यस्माद् ग्रसति चैवायुर्हिसकानां महाद्युते । तस्माद् विवर्जयेन्मांसं य इच्छेद् भूतिमात्मनः ॥
(म.भा. 13/115/31)
हिंसकों की आयु को उनका ( जीव - हिंसा आदि का) पाप ग्रस लेता है। इसलिये जो अपना कल्याण चाहता है, वह मनुष्य ( जीव - हिंसा से बचने के लिए) मांस का सर्वथा परित्याग कर दे।
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अहिंसक जीव को मांस - त्यागी होना चाहिए।
{425}
अहिंसकस्तथा जन्तुर्मांसवर्जयिता भवेत् ॥
[वैदिक / ब्राह्मण संस्कृति खण्ड / 120
(वि. ध. पु. 3/268/5)
{426}
एवं वै परमं धर्मं प्रशंसन्ति मनीषिणः । प्राणा यथाऽऽत्मनोऽभीष्टा भूतानामपि वै तथा ॥ आत्मौपम्येन मन्तव्यं बुद्धिमद्भिः कृतात्मभिः । मृत्युतो भयमस्तीति विदुषां भूतिमिच्छताम् ॥ किं पुनर्हन्यमानानां तरसा जीवितार्थिनाम् । अरोगाणामपापानां पापैर्मासोपजीविभिः ॥ तस्माद् विद्धि महाराज मांसस्य परिवर्जनम् । धर्मस्यायतनं श्रेष्ठं स्वर्गस्य च सुखस्य च ॥
( म.भा. 13 / 115/19-22)
इस प्रकार मनीषी पुरुष अहिंसा रूप परमधर्म की प्रशंसा करते हैं। जैसे मनुष्य को अपने प्राण प्रिय होते हैं, उसी प्रकार समस्त प्राणियों को भी अपने-अपने प्राण प्रिय होते हैं । जो बुद्धिमान् और पुण्यात्मा है, उन्हें चाहिये कि सम्पूर्ण प्राणियों को अपने समान समझें। जब अपने कल्याण की इच्छा रखने वाले विद्वानों को भी मृत्यु का भय बना रहता है, तब जीवित रहने की इच्छा वाले नीरोग और निरपराध प्राणियों को, जो मांस पर जीविका चलाने वाले पापी पुरुषों द्वारा बलपूर्वक मारे जाते हैं, क्यों न भय प्राप्त होगा? इसलिये मांस का परित्याग धर्म, स्वर्ग और सुख का सर्वोत्तम आधार है - ऐसा समझें ।
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