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समुत्पत्तिं च मांसस्य वधबन्धौ च देहिनाम्। प्रसमीक्ष्य निवर्तेत सर्वमांसस्य भक्षणात्॥
(म.स्मृ. 5/49) मांस की उत्पत्ति और जीवों के वध व बन्धन ( में होने वाली हिंसा के दोष) को समझ कर, सब प्रकार के मांस-भक्षण से निवृत्त होना चाहिये।
अहिंसा की पूर्णताः मांस-भक्षण के त्याग से ही
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{423} यथा सर्वश्चतुष्पाद् वै त्रिभिः पादैन तिष्ठति। तथैवेयं महीपाल कारणैः प्रोच्यते त्रिभिः॥ यथा नागपदेऽन्यानि पदानि पदगामिनाम्। सर्वाण्येवापिधीयन्ते पदजातानि कौञ्जरे॥ एवं लोकेष्वहिंसा तु निर्दिष्टा धर्मतः पुरा। कर्मणा लिप्यते जन्तुर्वाचा च मनसाऽपि च॥ पूर्वं तु मनसा त्यक्त्वा तथा वाचाऽथ कर्मणा। न भक्षयति यो मांसं त्रिविधं स विमुच्यते।
(म.भा. 13/114/5-8) (युधिष्ठिर को भीष्म का उत्तर-) जैसे चार पैरोंवाला पशु तीन पैरों से नहीं खड़ा रह सकता, उसी प्रकार केवल (मन, वचन व शरीर-इन) तीन ही कारणों से पालित हुई है अहिंसा पूर्णतः अहिंसा नहीं कही जा सकती। जैसे हाथी के पैर के चिन्ह में सभी पदगामी ॥ प्राणियों के पदचिन्ह समा जाते हैं, उसी प्रकार पूर्व काल में इस जगत के भीतर धर्मतः म अहिंसा का निर्देश किया गया है अर्थात् अहिंसा धर्म में सभी धर्मो का समावेश हो जाता है,
ऐसा माना गया है। जीव मन, वाणी और क्रिया के द्वारा हिंसा के (त्रिविध) दोष से लिप्त म होता है, किंतु जो क्रमशः पहले मन, से फिर वाणी से और फिर क्रिया द्वारा हिंसा का त्याग
करके सदैव मांस नहीं खाने का भी नियम पालता है, वही पूर्वोक्त तीनों प्रकार की हिंसा के 5 * दोष से मुक्त हो जाता है (अर्थात् जो व्यक्ति मन, वाणी व कर्म से हिंसा का त्याग तो करता, म किन्तु वह अहिंसा-धर्म का पूर्णतः पालक तभी हो पाता है जब वह मांस-भक्षण का भी है म त्याग कर दे। इस चतुर्विध अहिंसा के पालन से ही वह हिंसा-दोष से मुक्त हो पाता है)।
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अहिंसा कोश/119]