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अहिंसा के प्रतिकूल धर्मः पर-निन्दा, परदोषारोपण, आत्म-स्तुति आदि
{397} स्पृहयालुरुग्रः परुषो वा वदान्यः क्रोधं बिभ्रन्मनसा वै विकत्थी। नृशंसधर्माः षडिमे जना वै प्राप्याप्यर्थे नोत सभाजयन्ते॥
__(म.भा. 5/45/3) लोलुप, क्रूर, कठोरभाषी, कृपण, मन-ही-मन क्रोध करने वाले और अधिक आत्मप्रशंसा करने वाले-ये छः प्रकार के मनुष्य निश्चय ही क्रूर कर्म करने वाले होते हैं। ये # प्राप्त हुई सम्पत्ति का उचित उपयोग नहीं करते ।
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{398} अनृते च समुत्कर्षो राजगामि च पैशुनम्। गुरोश्चालीकनिर्बन्धः समानि ब्रह्महत्यया॥
(म.भा. 5/40/3) झूठ बोल कर उन्नति करना, राजा के पास तक चुगली करना, गुरुजन पर भी झूठा के दोषारोपण करने का आग्रह करना- ये तीन कार्य ब्रह्महत्या के समान है।
{399} परस्य निन्दां पैशुन्यं धिक्कारं च करोति यः। तत्कृतं पातकं प्राप्य स्वपुण्यं प्रददाति सः॥
(प.पु. 6(उत्तर)/112/17) जो व्यक्ति जिस किसी दूसरे की निन्दा करता है, चुगली करता है तथा उसे धिक्कारता है, तो वह उस व्यक्ति के पाप को ग्रहण करता है और उसे अपना पुण्य दे देता है।
(अर्थात् निन्दा करने वाला व्यक्ति अपना पुण्य तो गंवाता ही है, जिसकी निन्दा करता है उसका पाप भी अपने सिर चढा लेता है।)
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{400 आत्माभिष्टवनं निन्दां परस्य च विवर्जयेत्॥
__ (वि. ध. पु. 2/90/87) आत्म-स्तुति तथा पर-निन्दा का त्याग करना चाहिए। %%%% % %%%%%% %%%% %%%% %%%% %% %%%、 वैदिक/ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/112