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___{387} पयस्वन्मामक वचः।
(अ3/24/1)
मेरा वचन दूध जैसा मधुर, सारयुक्त एवं सब के लिए उपादेय हो।
{388}
त्वंकारो वा वधो वापि गुरूणामुभयं समम्॥
(स्कं. पु. 1/(2)/41/168) गुरु-जनों के प्रति 'तुम' कह कर बोलना या उनका वध करना- दोनों समान ही हैं।
{389} अवधेन वधः प्रोक्तो यद् गुरुस्त्वमिति प्रभुः।
(म.भा. 8/69/86) __गुरु (जैसे पूज्य व्यक्ति) को 'तूं' इस शब्द से तुच्छता की दृष्टि से सम्बोधन करना ॐ ही उसे बिना मारे ही मार डालना है।
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{390} मूढानामवलिप्तानामसारं भाषितं बहु। दर्शयत्यन्तरात्मानमग्निरूपमिवांशुमान्॥
(म.भा.12/287/33) घमंडी मूर्तों की कही हुई असार बातें उनके दूषित अन्तःकरण का ही प्रदर्शन म कराती हैं, ठीक उसी तरह जैसे सूर्य सूर्यकान्तमणि के योग से अपने दाहक अग्निरूप को ही
प्रकट करता है।
{391} न जातु त्वमिति ब्रूयादापन्नोऽपि महत्तरम्। त्वंकारो वा वधो वेति विद्वत्सु न विशिष्यते॥
(म.भा.13/262/52) ___युधिष्ठिर ! तुम कभी बड़े-से-बड़े संकट पड़ने पर भी किसी श्रेष्ठ पुरुष के प्रति 'तुम' का प्रयोग न करना। किसी को 'तुम' कहकर पुकारना उसका वध कर म डालना-इन दोनों में विद्वान पुरुष कोई अन्तर नहीं मानते। 都如均为男男场场均明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明、 विदिक/ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/110