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{332} अवैरा ये त्वनायासा मैत्रचित्तरताः सदा। सर्वभूतदयावन्तस्ते नराः स्वर्गगामिनः॥
___ (ब्रह्म.पु. 116/35) जो किसी से वैर नहीं करते, सहज जीवन जीते हुए मैत्री-भाव में अनुरक्त रहते हैं, तथा जो सभी प्राणियों के प्रति दया-भाव रखते हैं, वे लोग स्वर्ग जाते हैं।
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सत्यं दानं दयाऽलोभो विद्येज्या पूजनं दमः। अष्टौ तानि पवित्राणि शिष्टाचारस्य लक्षणम्॥
(ग.पु. 1/205/5) शिष्टाचार के अन्तर्गत निम्नलिखित आठ पवित्र कार्य आते हैं- (1) सत्य, (2) दान, (3) दया, (4) निर्लोभता, (5) विद्या, (6) यज्ञ, (7) पूजा, और (8) दम (इन्द्रिय-निग्रह)।
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{334} भद्रं कर्णेभिः श्रृणुयाम देवाः, भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः। स्थिरैरंगैस्तुष्टुवांसस्तनूभिः, व्यशेम देवहितं यदायुः॥
(ऋ .1/89/8) जीवन की सुख-शान्ति के लिए हम संकल्प करें कि हम देवजन कानों से शुभ वार्ता ही सुनें, श्रेष्ठ बातों में ही रस लें; आंखों से श्रेष्ठ दृश्य देखना ही हमें रुचिकर हो और प्रभु-कृपा से प्राप्त स्वस्थ-सबल शरीर द्वारा दीर्घायु होकर कल्याण-मार्ग पर चलते रहें।
{335} न कामयेऽहं गतिमीश्वरात्परामष्टर्द्धियुक्तामपुनर्भवं वा। आर्तिं प्रपद्येऽखिलदेहभाजामन्तःस्थितो येन भवन्त्यदुःखाः॥
(भा.पु. 9/21/12) (राजा रन्तिदेव की अभिलाषा-) मैं भगवान से अष्टैश्वर्ययुक्त परम गति नहीं चाहता और मुझे मोक्ष की भी चाह नहीं है। मैं तो सभी देहधारियों के हृदय में बैठ कर उनका दुःख ॐ स्वयं सहना चाहता हूं, जिससे उनका दुःख दूर हो जाय।
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%%% %% [वैदिक/ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/98