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{260} नापध्यायेन्न स्पृहयेत्, नाबद्धं चिन्तयेदसत्॥
(म.भा.12/215/8) किसी का अहित न सोचे और न चाहे। असम्भव व मिथ्या पदार्थों का चिन्तन भी मन करे।
{261} द्वन्द्वोपशमसीमान्तं संरम्भज्वरनाशनम्। सर्वदुःखातपाम्भोदं समत्वं विद्धि राघव॥ मित्रीभूताखिलरिपुर्यथाभूतार्थदर्शनः । दुर्लभो जगतां मध्ये साम्यामृतमयो जनः॥
' (यो.वा.निर्वाण (4)198/11-12) समता को सुख-दुख, शीतोष्ण आदि द्वन्द्वों की शान्ति की परमसीमा, संशयरूपी * ज्वर की विनाशक तथा सकल दुःखरूपी आतप के लिए मेघरूप जाने।
समतारूपी अमृत से ओतप्रोत व्यक्ति के लिए सभी शत्रु मित्र-रूप हो जाते हैं, ऐसा यथार्थदर्शी पुरुष त्रिलोकी में दुर्लभ है।
रक्षणीय/अवध्य प्राणीः स्त्रियां, गौ, पक्षी आदि
{262} अवध्यो ब्राह्मणो बालः स्त्री तपस्वी च रोगभाक्।
(पं.त. 1/214) ब्राह्मण, बालक, स्त्री, तपस्वी और रोगी अवध्य होते हैं अर्थात् इन्हें मृत्यु-दण्ड नहीं दिया जाता है।
{263}
अवध्याः शत्रुयोषितः।
(म.पु. 188/49)
शत्रु की स्त्रियाँ भी अवध्य होती हैं।
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) अहिंसा कोश/81]