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{318} ये स्थवीयांसोऽपरिभिन्नास्ते मैत्रा, न वै मित्रः कंचन हिनस्ति, न मित्रं कश्चन हिनस्ति।
(श.प.5/3/2/7) जो महान् और अभिन्न होते हैं, वे ही मित्र होते हैं। जो मित्र होता है, वह किसी की हिंसा नहीं करता है तथा मित्र की भी कोई हिंसा नहीं करता है।
{319} भयात्पापात्तपाच्छोकादारिद्र्यव्याधिकर्शितान्॥ विमुंचन्ति च ये जन्तूंस्ते नराः स्वर्गगामिनः॥
(प.पु. 2/96/29) भय, पाप-कर्म, संताप, शोक, दरिद्रता व व्याधि आदि से ग्रस्त प्राणियों को जो व्यक्ति (संकट से) मुक्ति दिलाते हैं, वे स्वर्ग में जाते हैं।
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{320} योऽध्रुवेणात्मना नाथा न धर्मं न यशः पुमान्। ईहेत भूतदयया स शोच्यः स्थावरैरपि॥ एतावानव्ययो धर्मः पुण्यश्रोकैरुपासितः। यो भूतशोकहर्षाभ्यामात्मा शोचति हृष्यति॥
(भा.पु. 6/10/8-9) जो प्राणी अपने अनित्य शरीर से सब जीवों पर दया करते हुए धर्म तथा यश के म उपार्जन का उद्योग नहीं करता, वह वृक्षादिकों की दृष्टि में भी शोचनीय होता है। दूसरों के
दुःख में दुःखी होना तथा उसके सुख में सुखी होना ही पुण्यकीर्तिशाली पुरुषों द्वारा सेवित के एक अविनाशी धर्म है।
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{321} भद्रं नो अपि वातय, मनो दक्षमुत क्रतुम्।
(ऋ. 10/25/1) हमारे मन को शुभसंकल्प वाला बनाओ, हमारे अन्तरात्मा को शुभ कर्म करनेवाला म बनाओ, और हमारी बुद्धि को शुभ विचार करने वाली बनाओ।
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अहिंसा कोश/95]