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प्रदानं प्रच्छन्नं गृहमुपगते सम्भ्रमविधिः, प्रियं कृत्वा मौनं सदसि कथनं चाप्युपकृतेः। अनुत्सेको लक्ष्या निरभिभवसाराः परकथाः, सतां केनोद्दिष्टं विषममसिधाराव्रतमिदम्॥
(नी.श. 57) गुप्त रूप से दान-धर्म करना, कोई अपने दरवाजे आए तो उसका आदर-सत्कार करना, लोगों का भला करना और किसी के सामने अपनी बड़ाई न जताना, दूसरों ने कुछ उपकार किया हो तो सबके सामने उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करना, धन-सम्पत्ति पाने पर अभिमान न करना, दूसरों की निंदा या तिरस्कार न करना-ये सब तलवार की धार पर चलने जैसा है, इसे सत्पुरुषों/सज्जनों को न जाने किसने सिखाया।
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अनिन्दा परकृत्येषु स्वधर्मपरिपालनम्॥ कृपणेषु दयालुत्वं सर्वत्र मधुरा गिरः। प्राणैरप्युपकारित्वं मित्रायाव्यभिचारिणे॥ गृहागते परिष्वङ्गः शक्त्या दानं सहिष्णुता। एवं समृद्धिष्वनुत्सेकः परबुद्धिष्वमत्सरः॥ अ-परोपतापि वचनं मौनव्रत-चरिष्णुता। बन्धुभिर्बद्धसंयोगः स्वजने चतुरस्रता॥ उचितानुविधायित्वम्, इतिवृत्तं महात्मनाम्॥
(अ.पु.238/19-22) संत-महात्माओं का समग्र चरित इस प्रकार है-दूसरों के बारे में निन्दा न करना, # अपने धर्म/कर्तव्य का निर्वाह, कृपण लोगों के प्रति दया-भाव, सर्वत्र मधुर भाषण, अपने * प्राण देकर भी किसी का उपकार करना, घर में मित्र आए तो उसे गले लगाना, यथाशक्ति + दान, सहनशीलता, समृद्धि में अभिमान न होना, दूसरों की उन्नति/समृद्धि पर ईर्ष्या नहीं + करना, ऐसा वचन न बोलना जिससे दूसरे को संताप/पीड़ा हो, प्रायः मौन रहना, बन्धुॐ बांधवों के साथ सहयोग-भावना से जुड़े रहना, आत्मीय जनों के प्रति सहयोगी होना, और ॥
उचित कार्य को ही करना।
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अहिंसा कोश/43]