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{230} यथैव मरणाद् भीतिः अस्मदादिवपुष्मताम्। ब्रह्मादिकीटकान्तानां तथा मरणतो भयम्॥ सर्वे तनुभृतस्तुल्याः, यदि बुद्ध्या विचार्यते। इदं निश्चित्य केनापि नो हिंस्यःकोऽपि कुत्रचित्॥
(शि.पु. 2/5/5/14-15) जिस प्रकार हम शरीरधारियों को मृत्यु से भय का अनुभव होता है- वैसे ही ब्रह्मा से लेकर कीट-पर्यन्त सभी को मरण से भय होता है। यदि बुद्धिपूर्वक विचार किया जाय तो + सभी शरीरधारियों की स्थिति समान है। इस (आत्मवत् दृष्टि) का निश्चय करके कोई एवं
कभी भी किसी की हिंसा न करे।
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{231} प्राणा यथाऽत्मनोऽभीष्टाः भूतानामपि ते तथा। आत्मौपम्येन गन्तव्यमात्मविद्भिर्महात्मभिः॥
(वि. ध. पु. 3/268/11) जैसे अपने स्वयं के प्राण (प्यारे व) अभीष्ट हैं, वैसे ही अन्य प्राणियों को भी ॐ अभीष्ट हैं- इस प्रकार आत्मवेत्ता महात्माओं को आत्मौपम्य-दृष्टि रख कर व्यवहार करना
चाहिए।
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अहिंसा-निरतो भूयाद्, यथाऽऽत्मनि तथा परे॥
(प.पु. 2/13/23) सबसे आत्मवत् व्यवहार करते हुए, अहिंसा के आचरण में उद्यत होना चाहिए (अर्थात् जैसे स्वयं को अन्य द्वारा अपने प्रति किया हुआ हिंसक आचरण अच्छा नहीं लगता, उसी तरह स्वयं भी अन्य के प्रति हिंसक आचरण न करे)।
{233}
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।
(कू.पु. 2/16/36 ; प. पु. 3/55/33, 1/19/336; वि. ध. पु. 3/254/44) जो अपने को प्रतिकूल लगे, वह कार्य अन्य के साथ भी न करे।
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अहिंसा कोश/73]