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{222} पक्वविद्या महाप्राज्ञा जितक्रोधा जितेन्द्रियाः। मनसा कर्मणा वाचा नापराध्यन्ति कर्हिचित्॥ अनीर्षवो न चान्योन्यं विहिंसन्ति कदाचन। न च जातूपतप्यन्ते धीराः परसमृद्धिभिः॥ निन्दाप्रशंसे चात्यर्थं न वदन्ति परस्य ये। न च निन्दाप्रशंसाभ्यां विक्रियन्ते कदाचन।
___(म.भा.12/229/12-14) मनीषी पुरुषों का ज्ञान परिपक्व होता है। वे महाज्ञानी, क्रोध को जीतने वाले और जितेन्द्रिय होते हैं तथा मन, वाणी और शरीर से कभी किसी का अपराध नहीं करते हैं। उनके
मन में एक दूसरों के प्रति ईर्ष्या नहीं होती। वे कभी हिंसा (हिंसक आचरण) नहीं करते तथा ' 5 वे धीर पुरुष दूसरों की समृद्धियों से कभी मन-ही-मन जलते नहीं हैं। पुरुष दूसरों की न
तो निन्दा करते हैं और न अधिक प्रशंसा ही। उनकी भी कोई निन्दा या प्रशंसा करे तो उनके ॥ मन में कभी विकार नहीं होता है।
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अद्रोहः सर्वभूतेषु कर्मणा मनसा गिरा। अनुग्रहश्च दानं च शीलमेतत् प्रशस्यते॥
(म.भा.12/124/66) मन, वाणी और क्रिया द्वारा किसी भी प्राणी से द्रोह न करना, सब पर दया करना और यशाशक्ति दान देना-यह शील कहलाता है, जिसकी सब लोग प्रशंसा करते हैं।
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{224} यदन्येषां हितं न स्यादात्मनः कर्म पौरुषम्। अपत्रपेत वा येन न तत् कुर्यात् कथंचन॥
(म.भा.12/124/67) अपना जो भी पुरुषार्थ और कर्म दूसरों के लिये हितकर न हो अथवा जिसे करने में * संकोच का अनुभव होता हो, उसे किसी तरह नहीं करना चाहिये।
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%%% %、 अहिंसा कोश/71]