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{249) परद्रोहं तथा हिंसा प्रयत्नेन विवर्जयेत्॥
(वि. ध. पु. 2/90/77) (प्रत्येक) मनुष्य को चाहिए कि वह दूसरे से द्रोह करना तथा हिंसक आचरण। इन्हें प्रयत्नपूर्वक छोड़ दे।
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{250 यथैवात्मेतरस्तद्वद् द्रष्टव्यः सुखमिच्छता। सुखदुःखानि तुल्यानि यथाऽऽत्मनि तथा परे।। सुखं वा यदि वा दुःखं यत्किञ्चित् क्रियते परे। ततस्तत्तु पुनः पश्चात् सर्वमात्मनि जायते॥
(द. स्मृ., 3/20-21) जिस प्रकार अपनी आत्मा है, वैसी ही दूसरे की आत्मा है- ऐसा प्रत्येक सुखार्थी ॐ पुरुष को सोचना-देखना चाहिए। जैसे अपने स्वयं को दुःख या सुख होते हैं, वैसे ही दूसरों
को भी होते हैं । सुख या दुःख जो भी दूसरे के लिए किए जाते हैं, वे कुछ समय बाद उसी तरह (सुख या दुःख रूप में) अपने लिए भी उत्पन्न होते हैं।
अहिंसा का आधारः प्रशस्त विचार व समत्व-दर्शन
___{251) मातृवत् परदारांश्च परद्रव्याणि लोष्टवत्। आत्मवत् सर्वभूतानि यः पश्यति स पश्यति॥ ___ (प.पु. 1/19/336-337; आ.स्मृ. 10/11; ग.पु. 1/111/12
एवं पं.तं 1/435 में आंशिक परिवर्तन के साथ) जो परस्त्रियों को माता के समान, परधन को लोष्ट (ढेले) के समान, और सब प्राणियों को अपनी आत्मा के समान देखता है, वस्तुतः वही द्रष्टा है, देखने वाला है।
[समत्व-दर्शन सम्बन्धी विवरण हेतु द्रष्टव्यः भा. पु. 7/14/9, 11/11/16; गीता 5/18-19; 6/9, 29,32; - 12/18; ब्रह्म. 128/20; प. पु. 1/50/92; म. भा. 12/239/21-22 आदि-आदि]
वैदिक/बाह्मण संस्कृति खण्ड/78