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{245}
जीवितुं यः स्वयं चेच्छेत् कथं सोऽन्यं प्रघातयेत् । यद् यदात्मनि चेच्छेत तत् परस्यापि चिन्तयेत् ॥
(म.भा.12/259/22)
जो स्वयं जीवित रहना चाहता हो, वह दूसरों के प्राण कैसे ले सकता है? मनुष्य अपने लिये जो-जो सुख-सुविधा चाहे, उसी को दूसरे के लिये भी सुलभ कराने के लिए सोचे ।
{246}
यो न हिंस्यादहं ह्यात्मा भूतग्रामं चतुर्विधम् । तस्य देहाद्वियुक्तस्य भयं नास्ति कदाचन ।
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(बृ. स्मृ. 1/35 )
जो चारों प्रकार के प्राणियों को अपनी जैसी एक ही आत्मा का स्वरूप मानकर हिंसा नहीं करता है, वह अपने शरीर के छूटने पर भी कभी भयभीत नहीं होता है ।
{247}
आत्मोपमस्तु भूतेषु यो वै भवति मानवः । न्यस्तदण्डो जितक्रोधः प्रेत्येह लभते सुखम् ॥
(म.भा. 12/66/36; तथा 13/113/6 में आंशिक परिवर्तन के साथ)
जो मानव समस्त प्राणियों को अपने समान समझता है, ( उनके प्रति हिंसा आदि ) दण्ड का त्याग कर देता है, और क्रोध को जीत लेता है, वह इस लोक में, और मृत्यु के पश्चात् परलोक में भी, सुख पाता है।
{248}
आत्मवत् सर्वभूतानि ये पश्यन्ति नरोत्तमाः । तुल्या शत्रुषु मित्रेषु ते वै भागवतोत्तमाः ॥
(ना. पु. 1/5/57)
जो श्रेष्ठ पुरुष सभी प्राणियों को आत्म-तुल्य देखते हैं और शत्रु या मित्र दोनों के प्रति समान व्यवहार करते हैं, वे भागवत ( भगवद्-भक्त) पुरुषों में श्रेष्ठतम हैं ।
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अहिंसा कोश / 77]