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{241}
जनस्याशयमालक्ष्य यो यथा परितुष्यति ।
तं तथैवानुवर्तेत पराराधनपण्डितः ॥
(शु.नी. 3/15)
दूसरे को खुश रखने में निपुण व्यक्ति को चाहिये कि वह लोगों के भावों को समझ कर, तदनुसार जो जैसे खुश हो, उसके साथ वैसा व्यवहार करे ।
{242}
पीडामथोत्पाद्य नरस्य राम, यथाकथंचिन्नरकं प्रयाति । तस्मात् प्रयत्नेन विवर्जनीया परस्य पीडा मनुजेन राम ॥
(वि. ध. पु. 2 / 118/134) (हे परशुराम !) जो व्यक्ति जिस किसी भी तरह दूसरों को पीड़ा देता है, वह नरक
गामी होता है, इसलिए, मनुष्य को चाहिए कि वह सावधानी - पूर्वक पर- पीड़ा के कार्यों से दूर रहे |
[वैदिक / ब्राह्मण संस्कृति खण्ड / 76
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{243}
न पापे प्रतिपापः स्यात् साधुरेव सदा भवेत् । आत्मनैव हतः पापो यः पापं कर्तुमिच्छति ॥
(म.भा.3/207/45)
यदि कोई अपने साथ बुरा बर्ताव करे, तो भी स्वयं बदले में उसके साथ बुराई न करे। सब के साथ सदा सज्जन ही रहे, अर्थात् सद् व्यवहार ही करे। जो पापी दूसरों का अहित करना चाहता है, वह स्वयं ही नष्ट हो जाता है।
{244} प्रत्याख्याने च दाने च सुखदुःखे प्रियाप्रिये । आत्मौपम्येन पुरुषः प्रमाणमधिगच्छति ॥
(म.भा.13/113/9)
मांगने पर दाता द्वारा देने या इन्कार करने से, सुख या दुःख पहुंचाने से तथा प्रिय या अप्रिय करने से पुरुष को स्वयं जैसे हर्ष - शोक का अनुभव होता है, उसी प्रकार दूसरों के लिये भी समझे।
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