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{234} संक्षेपात् कथ्यते धर्मो जनाः! किं विस्तरेण वः। परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्॥ श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम्। आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्॥
(पं.त. 3/103-104) हे मनुष्यों! संक्षेप में तुम्हें धर्म का स्वरूप बताता हूं, विस्तार से क्या लाभ? परोपकार करना ही पुण्य है और दूसरों को दुःख देना ही पाप है। (अत:दूसरों को कष्ट न ई देते हुए सदैव परोपकार में ही संलग्न रहना चाहिए)।
धर्म का सार तत्त्व सुनो और सुनकर उसे हृदय में धारण करो। जो कार्य अपने लिए * अहितकर प्रतीत हो उन्हें दूसरों के साथ भी नहीं करना चाहिए।
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___{235} यथा परः प्रक्रमते परेषु तथाऽपरे प्रक्रमन्ते परस्मिन्। तथैव तेऽस्तूपमा जीवलोके यथा धर्मो नैपुणेनोपदिष्टः॥
(म.भा.13/113/10) जैसे एक मनुष्य दूसरों पर आक्रमण करता है, उसी प्रकार अवसर आने पर दूसरे भी उसके ऊपर आक्रमण करते हैं। इसी को तुम जगत् में अपने लिये भी दृष्टान्त समझो। है अतः किसी पर आक्रमण नहीं करना चाहिये। इसी प्रकार, धर्म का कौशलपूर्वक उपदेश किया गया है।
{236} यदन्यैर्विहितं नेच्छेदात्मनः कर्म पूरुषः। न तत् परेषु कुर्वीत जाननप्रियमात्मनः॥
(म.भा.12/259/20) मनुष्य दूसरों द्वारा किये हुए जिस व्यवहार को अपने लिये वांछनीय नहीं मानता, दूसरों के प्रति भी वह वैसा बर्ताव न करे। उसे यह जानना चाहिये कि जो बर्ताव अपने लिये अप्रिय है, वह दूसरों के लिये भी प्रिय नहीं हो सकता।
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%%%%%%% %%%%% (वैदिक/बाह्मण संस्कृति खण्ड/74