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{225}
परोपतापनं कार्यं वर्जनीयं सदा बुधैः।
(दे. भा. 5/15/15)
विद्वानों को पर-सन्तापकारी कार्य कभी नहीं करना चाहिए।
{226} त्रीण्येव तु पदान्याहुः पुरुषस्योत्तमं व्रतम्। न द्रुह्येच्चैव दद्याच्च सत्यं चैव परं वदेत्॥
(म.भा.13/120/10) वेद मनुष्य के लिये तीन बातों को उत्तम व्रत बताते हैं-(1) किसी के प्रति द्रोह न करे, (2) दान दे, तथा (3) दूसरों से सदा सत्य बोले।
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{227} संसिद्धाधिगमं कुर्यात् कर्म हिंसात्मकं त्यजेत्।
(म.भा.12/294/24) मनुष्य को उन्नत होने का प्रयत्न तो करना चाहिये, किंतु हिंसात्मक कर्म का त्याग म कर देना चाहिये।
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{228} न प्राणाबाधमाचरेत्
(म.स्मृ. 4/54) गृहस्थ ऐसा कोई कार्य न करे जिससे किसी प्राणी को बाधा/पीड़ा हो।
अहिंसा की नींवः सबसे आत्मवत व्यवहार
{229) आत्मवत्सर्वभूतेषु यो हिताय प्रवर्तते। अहिंसैषा समाख्याता वेदसंविहिता च या॥
(स्कं. पु. 1/(2)/55/15) सभी प्राणियों में आत्मवत् दृष्टि रखते हुए उनका हितकारी कार्य करना- यही # 'अहिंसा' है जो 'वेद' में प्रतिपादित है।
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वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/72