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{3} अहिंसाः भारतीय संस्कृति व धर्म की केन्द्र-बिन्दु
[भारतीय संस्कृति व धर्म का केन्द्र-बिन्दु 'अहिंसा' रही है। हमारी भारत भूमि ही 'अहिंसा' को क्रियान्वित करने की समुचित पुण्य-स्थली है- ऐसा माना गया है। सतयुग, द्वापर, त्रेता, कलि-इन चार क्रमिक सांस्कृतिक युगों के विभाजन के पीछे भी 'अहिंसा' रूपी मानदण्ड का होना दृष्टिगोचर होता है। सतयुग में अहिंसा का साम्राज्य है, तो 'कलियुग' अल्प अहिंसा वाला एवं हिंसा-बहुल माना गया है। ईश्वर या किसी महापुरुष द्वारा अवतार लेने का भी मुख्य उद्देश्य 'अहिंसा' की पुनः प्रतिष्ठा करना होता है या हिंसा-बहुल (आतंकवादी/आततायी है दैत्य आदि) व्यक्तियों द्वारा प्रवर्तित हिंसक वातावरण का समूल विनाश करना होता है। भक्ति-परम्परा के समर्थक मानते हैं- भक्ति में शक्ति है। वास्तव में 'अहिंसा' में शक्ति है, क्योंकि उक्त 'भक्त' या 'ईश्वरीय प्रिय' होने के लिए 'अहिंसक' होना आवश्यक है। इन्हीं विचारों के समर्थक कुछ शास्त्रीय उद्धरण यहां प्रस्तुत हैं-]
अहिंसाचरण के लिए सर्वथा उपयक्त भमिः भारतवर्ष
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{178} यत्र देवताः सदा हृष्टा जन्म वाच्छन्ति शोभनम्। नानावतफलं चैव नानाशास्त्रफलं तथा॥ अहिंसादिफलं सम्यक्फलं सर्वाभिवाञ्छितम्। ब्रह्मचर्यफलं चैव स्वाध्यायेन च यत्फलम्॥ इष्टापूर्तफलं चैव तथाऽन्यच्छुभकर्मणाम्॥ प्राप्यते भारते वर्षे न चान्यत्र द्विजोत्तमाः॥ कः शक्नोति गुणान् वक्तुं भारतस्याखिलान् द्विजाः॥ एवं सम्यक् मया प्रोक्तं भारतं वर्षमुत्तमम्। सर्वपापहरं पुण्यं धन्यं बुद्धिविवर्धनम्॥
(ब्रह्म. 25/75-79) (प्रजापति ब्रह्मा का मुनियों को कथन-) यह पुण्यस्थली भारत-भूमि धन्य है, जहां * ज्ञान की वृद्धि और समस्त पापों का नाश करना सम्भव है। इस भारत-भूमि के समस्त गुणों 卐
को कौन वर्णन कर सकता है? यही वह भूमि है जहां किये गये शुभ-कर्मो का हमें फल
[वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/58