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{206} अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च। निर्ममो निरहंकारः समदुःखसुखः क्षमी।। संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः। मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः।।
(म.भा. 6/36/13-14, गीता- 12/13-14) जो पुरुष सब भूतों में द्वेषभाव से रहित, स्वार्थरहित, सब का प्रेमी और निष्कारण दयालु है; तथा ममता से रहित, अहंकार से रहित, सुख-दुःखों की प्राप्ति में समभावी और क्षमावान् है अर्थात् अपराध करने वाले को भी अभय देने वाला है, तथा जो योगी एवं निरन्तर संतुष्ट है, मन-इन्द्रियों सहित शरीर को वश में किये हुए है,और ईश्वर को अर्पण किये हुए मन-बुद्धि वाला है, वही ईश्वर-भक्त एवं ईश्वर को प्रिय है।
{2073 तत्र भागवतान्धर्माञ्छिक्षेद गुर्वात्मदैवतः। अमाययाऽनुवृत्त्या यैस्तुष्येदात्माऽऽत्मदो हरिः॥ सर्वतो मनसोऽसङ्गमादौ सङ्गं च साधुषु। दयां मैत्री प्रश्रयं च भूतेष्वद्धा यथोचितम्॥ शौचं तपस्तितिक्षां च मौनं स्वाध्यायमार्जवम्। ब्रह्मचर्यमहिंसां च समत्वं द्वन्द्वसंज्ञयोः॥ सर्वत्रात्मेश्वरान्वीक्षां कैवल्यमनिकेतताम्। विविक्तचीरवसनं सन्तोषं येन केनचित्॥
(भा.पु. 11/3/22-25) ('प्रबुद्ध' मुनि का राजा निमि को उपदेश-) गुरुदेव को ही आत्मा तथा इष्टदेव मानता हुआ उन्हीं से भागवत-धर्मों को सीखे। गुरु के प्रति निष्कपट आचरण करने से स्वयं + अपने को दे डालने वाले श्रीकृष्ण प्रसन्न हो जाते हैं। भागवत धर्म इस प्रकार हैं-सर्वप्रथम ॐ सब ओर से मन की असङ्गता, साधुजनों का सङ्ग, सब प्राणियों के प्रति यथोचित दया, मैत्री म एवं विनयभाव, शौच, तप, तितिक्षा अर्थात् द्वन्द्वों को सहना, मौन अर्थात् व्यर्थ वार्ता9 वर्जन,मननशील स्वाध्याय, सरलता, ब्रह्मचर्य, अहिंसा, सुख-दुःखादि द्वन्द्वों में समान व्यवहार, * आत्मस्वरूप श्रीहरि को सर्वत्र देखना, एकान्तसेवन, अनिकेतता अर्थात् गृह आदि में ममत्व म का अभाव, पवित्र वस्त्र पहनना, और जो कुछ मिल जाय उसी में सन्तोष करना। .
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अहिंसा कोश/67]