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भ मिल सकता है, अन्यत्र (भोगभूमियों में) नहीं। यहीं, अहिंसा आदि के आचरण का सर्वॐ वांछित फल मिलता है,यहीं ब्रह्मचर्य का, स्वाध्याय का, इष्ट व पूर्त कार्यों का, इसी तरह + अन्यान्य शुभकर्मों का फल मिल सकता है। यहां जन्म अनेकों व्रतों के आचरण से तथा # विविध शास्त्रों के अध्ययन के फलस्वरूप ही प्राप्त हो पाता है। यही कारण है कि देवता भी
सदैव हर्ष-पूर्वक यहां जन्म लेना चाहते हैं।
अहिंसा की स्थापना के लिए ईश्वरावतार
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'यदा-यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्। दैत्या हिंसानुरक्ताश्च अवध्याः सुरसत्तमैः॥
___ (ब्रह्म. 53/35-36) (द्रष्टव्य-गीता 4/7-8) (भगवान की स्वीकारोक्ति-) जब-जब धर्म की ग्लानि (ह्रास-स्थिति) और अधर्म की उन्नति होने लगती है, दैत्य गण हिंसा में अनुरक्त हो जाते हैं और श्रेष्ठ देवों द्वारा भी है उनका वध नहीं हो पाता, तब मैं स्वयं को (महापुरुष के रूप में) अवतरित करता हूं।
अहिंसा की प्रमुखताः श्रेष्ठ युग की आधार
{180} कृतं प्रावर्तत तदा कलिर्नासीत् जगत् -त्रये। धर्मोऽभवच्चतुष्पादश्चातुर्वण्र्येऽपि नारद॥ तपोऽहिंसा च सत्यं च शौचमिन्द्रियनिग्रहः। दया दानं त्वानृशंस्यं शुश्रूषा यज्ञकर्म च॥
___(वा.पु. 75/10-12) (राजा बलि के शासन में) धर्म, अपने पूर्ण रूप में, चारों पादों के साथ फलफूल रहा था। चारों वर्गों में सत्-युग ही प्रवृत्त हो रहा था, कलियुग का नामों-निशान भी नहीं रहा' ॐ था। तप, अहिंसा, सत्य, शौच, इन्द्रिय-निग्रह, दया, दान, आनृशंस्य (अक्रूरता/दया), # शुश्रूषा, यज्ञ कर्म-ये सभी समस्त जगत् में अनुष्ठित हो रहे थे।
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%%% * अहिंसा कोश/59]