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भवत्यधर्मो धर्मो हि धर्माधर्मावुभावपि। कारणाद् देशकालस्य देशकालः स तादृशः॥ मैत्राः क्रूराणि कुर्वन्तो जयन्ति स्वर्गमुत्तमम्। धाः पापानि कुर्वाणा गच्छन्ति परमां गतिम्॥
(म.भा.12/78/32-33) देश-काल की परिस्थिति के कारण कभी अधर्म तो धर्म हो जाता है और धर्म + अधर्म रूप में परिणत हो जाता है, क्योंकि वह वैसा ही देश-काल है।
सब के प्रति मैत्री का भाव रखने वाले मनुष्य भी (दूसरों की रक्षा के लिये किसी * दुष्ट के प्रति) क्रूरतापूर्ण बर्ताव करके उत्तम स्वर्गलोक पर अधिकार प्राप्त कर लेते हैं, तथा म धर्मात्मा पुरुष किसी की रक्षा के लिये (पीड़ा आदि) तथाकथित पाप-कार्य करते हुए भी है * परम गति को प्राप्त हो जाते हैं। (उदाहरणार्थ- अस्पताल आदि विशिष्ट स्थानों में तथा शल्य चिकित्सा करने के समय चिकित्सक रोगी के प्रति पीड़ादायक कार्य करता हुआ भी पापग्रस्त नहीं होता।)
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हिंसा-फलः कर्ता के भावानुरूप ही
{175} यथा सूक्ष्माणि कर्माणि फलन्तीह यथातथम्। बुद्धियुक्तानि तानीह कृतानि मनसा सह॥ भवत्यल्पफलं कर्म सेवितं नित्यमुल्बणम्। अबुद्धिपूर्वं धर्मज्ञ कृतमुद्रण कर्मणा॥
(म.भा.12/291/15-16) जैसे मन से सोच-विचारकर बुद्धि द्वारा निश्चय करके, जो स्थूल या सूक्ष्म कर्म यहां किये जाते हैं, वे यथायोग्य फल अवश्य देते हैं, उसी प्रकार हिंसा आदि उग्र कर्म के द्वारा ॐ अनजान में किया हुआ भयंकर पाप यदि सदा किया जाता रहे तो उसका फल भी मिलता म ही है; अन्तर इतना ही है कि जान-बूझ कर किये हुए कर्म की अपेक्षा, अनजाने में किये हुए
कर्म का फल बहुत कम हो जाता है।
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%% %% विदिक/बाह्मण संस्कृति खण्ड/56