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________________ 男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男%%% {174) भवत्यधर्मो धर्मो हि धर्माधर्मावुभावपि। कारणाद् देशकालस्य देशकालः स तादृशः॥ मैत्राः क्रूराणि कुर्वन्तो जयन्ति स्वर्गमुत्तमम्। धाः पापानि कुर्वाणा गच्छन्ति परमां गतिम्॥ (म.भा.12/78/32-33) देश-काल की परिस्थिति के कारण कभी अधर्म तो धर्म हो जाता है और धर्म + अधर्म रूप में परिणत हो जाता है, क्योंकि वह वैसा ही देश-काल है। सब के प्रति मैत्री का भाव रखने वाले मनुष्य भी (दूसरों की रक्षा के लिये किसी * दुष्ट के प्रति) क्रूरतापूर्ण बर्ताव करके उत्तम स्वर्गलोक पर अधिकार प्राप्त कर लेते हैं, तथा म धर्मात्मा पुरुष किसी की रक्षा के लिये (पीड़ा आदि) तथाकथित पाप-कार्य करते हुए भी है * परम गति को प्राप्त हो जाते हैं। (उदाहरणार्थ- अस्पताल आदि विशिष्ट स्थानों में तथा शल्य चिकित्सा करने के समय चिकित्सक रोगी के प्रति पीड़ादायक कार्य करता हुआ भी पापग्रस्त नहीं होता।) 我乐乐乐乐编织乐垢玩垢玩垢听听听听听听听听听听听听听听听听听听听%%%%%%%%听听听听听听 हिंसा-फलः कर्ता के भावानुरूप ही {175} यथा सूक्ष्माणि कर्माणि फलन्तीह यथातथम्। बुद्धियुक्तानि तानीह कृतानि मनसा सह॥ भवत्यल्पफलं कर्म सेवितं नित्यमुल्बणम्। अबुद्धिपूर्वं धर्मज्ञ कृतमुद्रण कर्मणा॥ (म.भा.12/291/15-16) जैसे मन से सोच-विचारकर बुद्धि द्वारा निश्चय करके, जो स्थूल या सूक्ष्म कर्म यहां किये जाते हैं, वे यथायोग्य फल अवश्य देते हैं, उसी प्रकार हिंसा आदि उग्र कर्म के द्वारा ॐ अनजान में किया हुआ भयंकर पाप यदि सदा किया जाता रहे तो उसका फल भी मिलता म ही है; अन्तर इतना ही है कि जान-बूझ कर किये हुए कर्म की अपेक्षा, अनजाने में किये हुए कर्म का फल बहुत कम हो जाता है। %%%%% %%%%%% %%%% % %%%%男、 %% %% विदिक/बाह्मण संस्कृति खण्ड/56
SR No.016128
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
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