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अहिंसा का विध्यात्मक स्वरूपः जीव-रक्षा
{170} जीवितुं यः स्वयं चेच्छेत् कथं सोऽन्यं प्रघातयेत्। यद् यदात्मनि चेच्छेत तत् परस्यापि चिन्तयेत्॥
(म.भा.12/259/22) जो स्वयं जीवित रहना चाहता हो, वह दूसरों के प्राण कैसे ले सकता है? मनुष्य अपने जलिये जो-जो सुख-सुविधा चाहे, उसी को दूसरे के लिये भी सुलभ कराने के लिए सोचे।
{1712 अहिंसापूर्वको धर्मो यस्मात् सद्भिदाहृतः। यूकामत्कुणदंशादींस्तस्मात् तानपि रक्षयेत्॥
(पं.त. 3/105) चूंकि (धर्मवित्) सजन मनुष्यों ने अहिंसा को ही धर्म कहा है, इसलिए यूका (जू), खटमल और डांस आदि (तुच्छप्राणियों) की भी रक्षा करनी चाहिए।
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{172} ---------------अहिंसां तु वदाम्यहम्। तृणमपि विना कार्यं छत्तव्यं न विजानता। अहिंसा-निरतो भूयाद, यथाऽऽत्मनि तथा परे॥
(प.पु. 2/13/22-23) (विदुषी सुमना ब्राह्मणी का अपने पति सोमशर्मा को कथन-) अहिंसा का स्वरूप मैं बता रही हूं (सुनो)। स्वयं की तरह सब को देखते हुए, सभी में आत्मवत् व्यवहार करते
हुए, निरर्थक तृण तक का भी छेदन नहीं करते हुए, अहिंसा का अनुष्ठाता (अहिंसक) होना ॐ चाहिए। अर्थात् जैसे स्वयं को अपना पीड़ित व सन्तापित आदि होना अच्छा नहीं लगता,
वैसे ही दूसरे के लिए, भले ही वह घास-फूस या छोटा पौधा ही क्यों न हो, पीड़ा आदि देने का कार्य नहीं करना अहिंसा' का अनुष्ठान /आचरण है।
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विदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/54