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{148} मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णाः, त्रिभुवनमुपकारश्रेणिभिः प्रीणयन्तः। परगुणपरमाणून्पर्वतीकृत्य नित्यम्, निजहदि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्तः॥
(नी.श. 70) जो मनसा-वाचा-कर्मणा सत्कर्म-रूपी अमृत से पूर्ण हैं, तीनों लोकों की भलाई में # लगे रहते हैं और सदा दूसरों की छोटी-से छोटी भली बात को बढ़ा-चढ़ा कर बखान करने ई में ही आनंद मानते हैं-ऐसे संत/सज्जन पुरुष इस संसार में बहुत कम पाए जाते हैं।
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1149 अभयं सत्त्वसंशुद्विर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः। दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्॥ अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्। दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्॥ तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता। भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत॥
(म.भा. 6/40/1-3, गीता 16/ 1-3) (1)भय का सर्वथा अभाव, (2)अन्तः करण की पूर्ण निर्मलता, (3) तत्त्वज्ञान के है लिये ध्यानयोग में निरन्तर दृढ़ स्थिति, (4) सात्त्विक दान, (5) इन्द्रियों का निग्रह/दमन,
(6)यज्ञ, (7) तप, (8)अन्तःकरण की सरलता, (9)मन, वाणी और शरीर से किसी प्रकार म भी किसी को कष्ट न देना, (10) यथार्थ और प्रिय भाषण, (11)अपना अपकार करने वाले
पर भी क्रोध का न होना, (12) अभिमान का त्याग, (13) अन्त:करण की उपरति अर्थात् ' चित्त की चंचलता का अभाव,(14) किसी की निन्दा आदि न करना, (15) सब प्राणियों में निष्कारण दया, (16) इन्द्रियों का विषयों के साथ संयोग होने पर भी उनमें आसक्ति का न होना, (17) कोमलता, (18) लोक और शास्त्र से विरुद्ध आचरण में लज्जा, (19) व्यर्थ है चेष्टाओं (चंचलता) का अभाव, (20) तेजस्विता, (21)क्षमा, (22) धैर्य, (23) बाहर की शुद्धि, (24)किसी के भी शत्रुभाव का न होना, और (25)अपने में पूज्यता के अभिमान ' का अभाव- ये ऐसे लक्षण हैं जो दैवी-सम्पदा के साथ उत्पन्न हुए पुरुष में पाए जाते हैं।
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1 555斯斯斯野野野野野野野野野野野野野野野野野野野野野野野野野野 विदिक/बाह्मण संस्कृति खण्ड/44