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परासुता क्रोधलोभाद्, अभ्यासाच्च प्रवर्तते।
(म.भा. 12/163/9) क्रोध और लोभ के बारंबार आवेग जब होते हैं तब व्यक्ति में परासुता' (दूसरों को 3 जान से मार देने की प्रवृत्ति) पैदा होती है।
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लोभात् त्यजन्ति धर्मं वै कुलधर्मं तथैव हि। मातरं भ्रातरं हन्ति पितरं बान्धवं तथा॥
(दे. भा. 6/16/48) लोभ (ही व दुर्गुण है, जिस) के कारण लोग धर्म को तथा कुल-धर्म को छोड़ कर, माता, पिता, भाई, बन्धुजनों की भी हत्या में प्रवृत्त होते हैं।
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__{159) कामादप्यधिको लोके लोभादपि च दारुणः। क्रोधाभिभूतः कुरुते हिंसां प्राणविघातिनीम्॥
(दे. भा. 6/7/10) संसार में काम (इच्छा, तृष्णा) से भी अधिक भयंकर तथा लोभ से भी अधिक दारुण 'क्रोध' है, जिसके कारण व्यक्ति किसी का भी प्राण-घात कर हिंसा-कार्य करते (देखे जाते) हैं।
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हिंसा/अहिंसा का भावात्मक परिवार
[वैदिक पुराणों में कही-कहीं अलंकारिक-प्रतीकात्मक शैली अपना कर कई भावात्मक पदार्थों के स्वरूप को समझाने का प्रयास दृष्टिगोचर होता है। एक पौराणिक स्थल पर असत्यकारिता (मृषा) रूपी पत्नी के पति के रूप में 'अधर्म' का निरूपण है और उसी के वंश-क्रम में होने वाली भावी सन्तानों के रूप में हिंसा, माया, दम्भ (मान), लोभ आदि को वर्णित किया गया है। एक अन्यत्र स्थल पर, हिंसा के पति के रूप में 'अधर्म' को वर्णित कर, माया, असत्य, शोक, क्रोध, ईर्ष्या आदि को वंशजात सन्ततियों के रूप में निरूपित किया गया है। निस्कर्षतः पौराणिक है ग्रन्थकार मानसिक विकारों से सम्बद्ध एक अधार्मिक प्रवृत्ति के रूप में 'हिंसा' को प्रस्तुत करना चाहते हैं। इसी तरह, अन्यत्र पुराण में 'धर्म' के परिवार के रूप में अहिंसा, क्षमा, शान्ति आदि को चित्रित किया गया है। इस वर्णन के पीछे
भी, पौराणिक मनीषियों का आशय यही है कि 'अहिंसा' एक धार्मिक प्रवृत्ति है, और सत्य, क्षमा, शान्ति- ये स #. उससे सम्बद्ध हैं। इसी सन्दर्भ में कुछ विशिष्ट उद्धरण यहां प्रस्तुत हैं-]
明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明男男男男男男%%%%%%* [वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/48