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मृषाऽधर्मस्य भार्याऽऽसीद्दम्भं मायां च शत्रुहन् । असूत मिथुनं तत्तु निर्ऋतिर्जगृहेऽप्रजः ॥ तयोः समभवल्लोभो निकृतिश्च महामते । ताभ्यां क्रोधश्च हिंसा च यद्दुरुक्तिः स्वसा कलिः ॥
(भा.पु. 4/8/2-3) अधर्म की मृषा (झूठ) नाम की भार्या थी । हे शत्रुसूदन ! उसके दम्भ नाम का पुत्र और माया नाम की कन्या उत्पन्न हुई । उन दोनों पुत्र - कन्या को निर्ऋति (अनिष्ट संकट) ले गया, क्योंकि उसके कोई सन्तान नहीं हुई थी । हे महामते ! उनसे लोभ तथा तथा निकृति अर्थात् शठता की उत्पत्ति हुई। उनसे क्रोध तथा हिंसा और उनसे कलह व दुरुक्ति (दुर्वचन) की उत्पत्ति हुई ।
[ अहिंसा का धार्मिक भावात्मक परिवार ].
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अथ धर्मः समायातः स्वरूपेण च वै तदा । ब्रह्मचर्यादिभिर्युक्तस्तपोभिश्च स बुद्धिमान् ॥ सत्यं ब्राह्मणरूपेण ब्रह्मचर्यं तथैव च। तपस्तु द्विजवर्योऽस्ति दमः प्राज्ञो द्विजोत्तमः ॥ क्षमा शान्तिस्तथा लज्जा अहिंसा च ह्यकल्कना । एताः सर्वाः समायाताः स्त्रीरूपास्तु द्विजोत्तम ॥ एवं धर्मः समायातः परिवार - समन्वितः ।
( प.पु. 2/12/60-63, 68 )
(दुर्वासा ऋषि की तपश्चर्या से प्रभावित होकर धर्म - परिवार की प्रत्यक्ष रूप से उपस्थिति हुई, उसका पौराणिक वर्णन ) - वहां धर्म अपने स्वरूप से (साकार होकर)
ब्रह्मचर्य व तप आदि पारिवारिक सदस्यों के साथ उपस्थित हुआ । ब्राह्मण का रूप धारण
कर सत्य, ब्रह्मचर्य, तप, दम तथा इसके अतिरिक्त क्षमा, शान्ति, लज्जा, अहिंसा, अकल्कना(अवंचकता ) - ये सभी स्त्री-रूप में वहां पधारीं ।
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[ वैदिक / ब्राह्मण संस्कृति खण्ड / 50