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{163} प्रसन्ना सा क्षमायुक्ता सर्वाभरणभूषिता। पद्मासना सुरूपा सा श्यामवर्णा यशस्विनी।। अहिंसेयं महाभागा भवन्तं तु समागता।
(प.पु. 2/12/86-87) ( स्वयं धर्म द्वारा अपने परिवार के विषय में दुर्वासा को कथन)-हे महाभाग! म देखिए, यह जो (आपके सामने) प्रसन्न मुद्रा में स्थित है, अपनी सहचरी क्षमा के साथ विराजमान है, सभी प्रकार के आभरणों से अलंकृत है, कमल पर बैठी है, वह सुन्दर रूप धारिणी, व श्याम वर्ण वाली यशस्विनी 'अहिंसा' है, जो आपके समक्ष पधारी है।
[धर्म के परिवार की विशेष जानकारी हेतु द्रष्टव्य-ब्र. पु. 2/9, प. पु. 2/8, 2/12 आदि-आदि।]
हिंसा/अहिंसा का व्यापक स्वरूप और उसके विविध प्रकार
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[किसी का अपकार या अहित करना, पीड़ा देना, सुख में बाधक बनना, निन्दा करना, भयभीत करना, वध ॥ करना आदि-आदि कार्य'हिंसा' ही हैं। अत: 'अहिंसा' में वे सभी कार्य समाहित हैं जिनसे किसी को उपकृत किया जाय, सुख पहुंचाया जाय, दुःख व संकट में सहायता दी जाय, प्राण-रक्षा की जाय, अपकारी पर क्षमा की जाय आदिआदि। इसी दृष्टि से क्षमा, दया, अनुकम्पा, करुणा, वैयावृत्त्य, दान, परोपकार, अभयदान, दुर्वचन का त्याग, समत्व-म दृष्टि और ऐसी सभी प्रवृत्तियां जिनसे प्राणियों का हित होता हो-'अहिंसा' के अन्तर्गत ही हैं। इसी सन्दर्भ में वैदिक/ ब्राह्मण परम्परा के ग्रन्थों से कुछ विशिष्ट उद्धरण यहां प्रस्तुत हैं-]
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अहिंसा का व्यापक परिभाषित स्वरूप
{164} कर्मणा मनसा वाचा सर्वभूतेषु सर्वदा। . अक्लेशजननं प्रोक्ता त्वहिंसा परमर्षिभिः॥
(कू.पु. 2/11/14) किसी भी जीव को मन, वचन व कर्म से, किसी भी रूप में, किसी भी प्रकार का क्लेश न पहुंचाने का नाम 'अहिंसा' है- ऐसा परम ऋषियों ने कहा है।
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