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अहिंसकस्ततः सम्यक् धृतिमान् नियतेन्द्रियः ।
शरण्यः सर्वभूतानां गतिमाप्नोत्यनुत्तमाम् ॥
{64}
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जो इन्द्रियजय धृतिसम्पन्न, पूर्णत: / सम्यक्तया अहिंसक होता हुआ, समस्त
प्राणियों के लिए शरण-स्थान होता है, वह उत्तम गति को प्राप्त करता है ।
{65}
कर्मणा मनसा वाचा ये न हिंसन्ति किंचन ।
ये न मज्जन्ति कस्मिंश्चित्ते न बध्नन्ति कर्मभिः ॥ प्राणातिपाताद्विरताः शीलवन्तो दयान्विताः । तुल्यद्वेष्यप्रिया दान्ता मुच्यन्ते कर्मबन्धनैः ॥ सर्वभूतदयावन्तो विश्वास्याः सर्वजन्तुषु । त्यक्तहिंस्त्रसमाचारास्ते नराः स्वर्गगामिनः ॥
[वैदिक / ब्राह्मण संस्कृति खण्ड / 18
( ब्रह्म. 15/75)
(ब्रह्म.पु. 116/7-9)
जो मन, वचन व कर्म से किसी की हिंसा नहीं करते हैं, और जो किसी विषय में (राग-ग्रस्त होकर) डूबते नहीं है, वे कर्मों के बन्धन में नहीं बंधते । जो प्राणि-वध से निवृत्त हैं, शील-सम्पन्न व दयालु हैं, इन्द्रियजयी हैं, तथा शत्रु व मित्र में समभाव रखते हैं, वे कर्म-बन्धन से छूट जाते हैं ।
{66}
अहिंसा सत्यवचनं सर्वभूतेषु चार्जवम् । क्षमा चैवाप्रमादश्च यस्यैते स सुखी भवेत् ॥ यश्चैनं परमं धर्मं सर्वभूतसुखावहम् । दुःखान्निःसरणं वेद सर्वज्ञः स सुखी भवेत् ॥
(म.भा. 12/215/6-7)
अहिंसा, सत्यभाषण, समस्त प्राणियों के प्रति सरलतापूर्ण बर्ताव, क्षमा तथा प्रमादशून्यता- ये गुण जिस पुरुष में विद्यमान हों, वही सुखी होता है। जो मनुष्य इस अहिंसा रूपी परम धर्म को समस्त प्राणियों के लिये सुखद और दुःख निवारक जानता है, वही _ सर्वज्ञ और सुखी होता है ।
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