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हिंसा के लौकिक व पारलौकिक दुष्परिणाम
{99) त्रातारं नाधिगच्छन्ति रौद्राः प्राणिविहिंसकाः। उद्वेजनीया भूतानां यथा व्यालमृगास्तथा॥
(म.भा.13/115/32) जैसे हिंसक पशुओं का लोग शिकार करते हैं और वे पशु अपने लिये कहीं कोई रक्षक नहीं पाते, उसी प्रकार प्राणियों की हिंसा करने वाले क्रूर मनुष्य दूसरे जन्म में सभी पापियों द्वारा उद्विग्न पीड़ित किये जाते हैं और उन्हें अपने लिये कोई संरक्षक भी नहीं मिलता।
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{100} अहिंसादिकृतं कर्म इह चैव परत्र च। श्रद्धां निहन्ति वै ब्रह्मन् सा हता हन्ति तं नरम्॥
__ (म.भा. 12/264/6) अहिंसा और दया आदि भावों से प्रेरित होकर किया हुआ कर्म इहलोक और परलोक में भी उत्तम फल देनेवाला है। यदि मन में हिंसा की भावना हो तो वह श्रद्धा का
नाश कर देती है। फिर वह नष्ट हुई श्रद्धा कर्म करने वाले इस हिंसक मनुष्य का ही सर्वनाश * कर डालती है।
{101} ये पुरा मनुजा देवि सर्वप्राणिषु निर्दयाः। जन्ति बालांश्च भुञ्जन्ते मृगाणां पक्षिणामपि॥ एवंयुक्तसमाचाराः पुनर्जन्मनि शोभने। मानुष्यं सुचिरात् प्राप्य निरपत्या भवन्ति ते। पुत्रशोकयुताश्चापि नास्ति तत्र विचारणा॥
(म.भा.13/145/पृ. 5968) (शिव का पार्वती को धर्म-निरूपण-) देवि! जो मनुष्य पहले समस्त प्राणियों के प्रति # निर्दयता का बर्ताव करते हैं, मृगों और पक्षियों के भी बच्चों को मारकर खा जाते हैं, ऐसे है + आचरण वाले जीव फिर जन्म लेने पर दीर्घकाल के पश्चात् मानव-योनि को पा कर संतानहीन म तथा पुत्रशोक से संतप्त होते हैं, इसमें विचार (या सन्देह) करने की आवश्यकता नहीं है। ..
[वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/28