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सोपधं निकृतिः स्तेयं परीवादो ह्यसूयिता। परोपघातो हिंसा च पैशुन्यमनृतं तथा॥ एतानासेवते यस्तु तपस्तस्य प्रहीयते। यस्त्वेतान् नाचरेद् विद्वांस्तपस्तस्य प्रवर्धते॥
(म.भा. 12/192/17-18) प्राणि हिंसा, कपट, शठता, चोरी, पर-निन्दा, दूसरों के दोष देखना, दूसरों को हानि पहुंचाना, चुगली खाना और झूठ बोलना- इन दुर्गुणों का जो सेवन करता है,उसकी तपस्या क्षीण होती है। किन्तु जो विद्वान् इन दोषों को कभी आचरण में नहीं लाता, उसकी तपस्या निरन्तर बढ़ती रहती है।
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{130} धर्मध्वजी सदा लुब्धश्छामिको लोकदम्भकः। बैडालव्रतिको ज्ञेयो हिंस्रः सर्वाभिसन्धकः॥
(म.स्मृ. 4/195) ते तपन्त्यन्धतामिस्त्रे तेन पापेन कर्मणा॥
(म.स्मृ. 4/197) हिंसक, धर्मध्वजी (अपनी प्रसिद्धि के लिये धर्म का ढोंग करने वाला), लोभीॐ कपटी, संसार को ठगने वाला (किसी की धरोहर नहीं वापस करने वाला आदि) और दूसरों
के गुण को सहन नहीं करने से उनकी निन्दा करने वाला 'बिडालव्रतिक' कहा गया है। ऐसे 卐 लोग अपने पाप के कारण 'अन्धतामिस्र' नरक में जाते हैं।
{131} ये त्विह यथैवामुना विहिंसिता जन्तवः परत्र यमयातनामुपगतं त एव रुरवो ॐ भूत्वा तथा तमेव विहिंसन्ति तस्माद्रौरवमित्याहू रुरुरिति सर्पादतिक्रूरसत्त्वस्यापदेशः॥
(भा.पु. 5/26/11) __इस संसार में कुटुम्ब का पोषण करने के लिये ही उसने जिस जीव की जिस प्रकार # हिंसा की होती है, परलोक में यम-यातना को प्राप्त होने पर उसे वे ही जीव 'रुरु' होकर
उसी तरह पीड़ित करते हैं। अतएव उसे 'रौरव' नरक कहते हैं। 'रुरु' नाम के जीव सर्प + से भी अधिक क्रूर स्वभाव के होते हैं।
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男%%%%%%% वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/38