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अहिंस्त्रो याति वैराज्यं नाकपृष्ठमनाशकम्।
( प.पु. 6 (उत्तर) / 32/65) हिंसा से विरत अहिंसक व्यक्ति को अविनाशी स्वर्गीय राज्य का आधिपत्य प्राप्त होता है।
हिंसा की निन्दा
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सर्वेषामेव पापानां हिंसा परमिहोच्यते ।
हिंसा बलमसाधूनां हिंसा लोकद्वयापहा ॥
(fa. u. g. 3/252/1)
सभी पापों में बड़ा पाप 'हिंसा' ही कही जाती है। हिंसा असज्जनों/ दुष्टों का ही बल होती है और वह उनके दोनों लोकों को बिगाड़ने वाली होती है।
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वने निरपराधानां प्राणिनां च मारणम् ॥ गवां गोष्ठे वने चाग्नेः पुरे ग्रामे च दीपनम् ॥ इति पापानि घोराणि सुरापानसमानि तु ॥
( प.पु. 2/67/60-61)
वन में निरपराध प्राणियों को मारना, तथा गौशाला में और वन, नगर व ग्राम में आग लगा देना- ये सुरापान की तरह ही घोर पाप हैं।
[वैदिक / ब्राह्मण संस्कृति खण्ड / 26
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त्यक्तस्वधर्माचरणा निर्घृणाः परपीडकाः । चंडाश्च हिंसका नित्यं म्लेच्छास्ते ह्यविवेकिनः ॥
( शु.नी. 1/44)
जो लोग स्वधर्माचरण को छोड़ने वाले, दयाशून्य, दूसरे को पीड़ा पहुंचाने वाले, क्रोधी तथा हिंसा करने वाले होते हैं, वे 'म्लेच्छ' हैं । उनमें विवेक का लेश भी नहीं होता है।
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