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कर्मणा मनसा वाचा सर्वावस्थासु सर्वदा। परपीड़न कुर्वन्ति, न ते यान्ति यमालयम्॥
(प.पु. 3/31/25) जो किसी भी स्थिति में कर्म, वाणी व मन से किसी को पीड़ित नहीं करते, वे कभी यमलोक में नहीं जाते।
{771
यो बन्धनवधक्लेशान् प्राणिनां न चिकीर्षति। स सर्वस्य हितप्रेप्सुः सुखमत्यन्तमश्रुते॥
(म.स्मृ. 5/46) जो जीवों का वध व बन्धन नहीं करना चाहता है, वह सब का हिताभिलाषी व्यक्ति अत्यन्त सुख प्राप्त करता है।
178)
यद्ध्यायति यत्कुरुते धृतिं बध्नाति यत्र च। तदवाप्नोत्ययत्नेन यो हिनस्ति न किंचन॥
(म.स्मृ. 5/47) जो किसी की हिंसा नहीं करता, वह जिसका चिन्तन करता है, जो कार्य करता है और जिस (परमात्मचिन्तन आदि) में ध्यान लगाता है; उन सबों को बिना (विशेष) प्रयत्न के ही प्राप्त कर लेता है।
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{79} न हिंसयति यो जन्तून् मनोवाक्कायहेतुभिः। जीवितार्थापनयनैः प्राणिभिर्न स हिंस्यते॥
(म.भा.12/175/27) जो मनुष्य मन, वाणी और शरीर रूपी साधनों द्वारा प्राणियों की हिंसा नहीं करता, # जीवन और अर्थ का नाश करने वाले हिंसक प्राणी उसकी भी हिंसा नहीं करते हैं।
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अहिंसा कोश/21]